Thursday, October 22, 2020

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष को लव जिहाद पर कोसने वालें पढ़ लें अभी के 10 मामलें

22 अक्टूबर 2020


वामपंथी कविता कृष्णन ने मंगलवार (अक्टूबर 20, 2020) को राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के बीच हुई बैठक पर अपनी नाराजगी जताई।




राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस बैठक पर ट्वीट किया था, “हमारी अध्यक्ष रेखा शर्मा श्री भगत सिंह कोशियारी से मिली। महाराष्ट्र के महामहिम राज्यपाल ने बैठक में महिलाओं की सुरक्षा पर बात की। इसमें कोविड केंद्रों में महिलाओं के साथ हो रही छेड़छाड़, बलात्कार सहित लव जिहाद के मामले सम्मिलित थे।”

अब इस ट्वीट में उल्लेखित किए गए ‘लव जिहाद’ शब्द से सीपीआई (एमएल) सदस्य आहत हो गईं। उन्होंने आयोग अध्यक्ष की आलोचना करते हुए कहा कि रेखा शर्मा ने राष्ट्रीय महिला आयोग को शर्मसार किया है।

कविता कृष्णन ने पूछा कि लव जिहाद क्या है? क्या अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति हिंदू महिला से प्रेम करता है तो वह लव जिहाद है? कविता ने यह भी लिखा कि रेखा शर्मा की हिम्मत कैसे है कुर्सी पर बने रहने की। कृष्णन ने दावा किया कि उन्हें एक भी ऐसे केस नहीं मिले जहाँ मुस्लिम युवकों ने हिंदू बनकर महिला के साथ रिश्ता बनाया हो और उन पर धर्मांतरण का दबाव बनाया हो।

कविता कृष्णन ने लव जिहाद केसों पर कैसे अनभिज्ञता जताई। लव जिहाद के बढ़ते मामलों पर अनजान बनते हुए कविता कृष्णन जैसी वामपंथी महिला ने न केवल इन केसों पर अपनी अनभिज्ञता जताई बल्कि दावा किया कि उनकी रिसर्च में ऐसा कोई केस उनके सामने नहीं आया जहाँ मुस्लिम युवकों ने हिंदू महिला के साथ पहचान छिपा कर धोखा किया हो। उन्होंने अपनी बात रखते हुए रेखा शर्मा को कट्टर तक लिखा।

अब बता दें कि लव जिहाद एक ऐसी स्थिति है जहाँ मुस्लिम व्यक्ति हिंदू महिला को फँसाने के लिए उनसे झूठ बोलता है। वह या तो अपनी पहचान छिपाकर या अपना धर्म छिपाकर गैर मुस्लिम महिला के साथ संबंध बनाता है। कई बार लड़की को जब देर से हकीकत पता चलती है तो या तो उसे प्रताड़ित किया जाता है या फिर उसे मार दिया जाता है। कई बार महिला का जबरन धर्मांतरण करवा कर भी उसे नारकीय यातनाएँ दी जाती हैं।

यह कोई एक तकनीकी या कानूनी शब्दावली नहीं है, बल्कि इस शब्द का प्रयोग उन परिस्थितियों को देखकर किया जाता है जहाँ गैर मुस्लिम महिला पर मजहब परिवर्तन जैसे दबाव बनाए गए हों। कई बार कुछ पीड़िताएँ आपबीती सुनाते समय इस शब्द का प्रयोग नहीं करती, लेकिन उनके साथ हुए अन्याय की पूरी कहानी इस लव जिहाद शब्द को परिभाषित कर देती है।

कई महिलाएँ खुशकिस्मत होती हैं जो लव जिहाद की वीभत्सता का शिकार होने से पहले कट्टरपंथियों के चंगुल से निकल जाती हैं और दुनिया को हकीकत बताती हैं। मगर, कई दर्दनाक किस्से ऐसे भी होते हैं जिन्हें सुनाने के लिए लड़कियाँ जिंदा तक नहीं बच पाती।

आज कविता कृष्णन, जिन्हें लव जिहाद के मामले रिसर्च करने पर भी नहीं मिल रहे, उनके लिए हम कुछ केस लेकर आए हैं ताकि लव जिहाद शब्द का अर्थ उन्हें व उन जैसे लोगों को समझ आ सके।

वसीम अहमद ने दिनेश रावत बन दिया हिंदू लड़की को धोखा-

हाल में, मेरठ में वसीम अहमद नाम के युवक के ख़िलाफ़ एक मामला दर्ज हुआ था। लड़की ने अपनी शिकायत में कहा था कि युवक ने उसे हिंदू बन कर प्रेम के जाल में फँसाया और उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए, बाद में उसकी वीडियोज भी वायरल कर दीं। लड़की ने शिकायत में कहा था कि वसीम ने उसे अपनी पहचान दिनेश रावत के रूप में बताई थी।

लड़की के बयान में कहा गया था कि वसीम ने उसे शादी का झाँसा दिया था, मगर बाद में बताया कि उसके दो बच्चे हैं। शिकायत में पीड़िता ने ये भी कहा था कि जब उसने वसीम से इन सबके पीछे वजह पूछी तो उसने कहा, “मैंने तुम्हें धोखा दिया क्योंकि मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था।”

गोल्डी बन निजामुद्दीन ने विधवा को दिया धोखा-

22 अगस्त 2020 को 25 साल की विधवा ने निजामुद्दीन नामक शख्स के खिलाफ़ शिकायत करवाई। इसमें उसने बताया कि निजामुद्दीन ने उससे अपना मजहब छिपाकर संबंध बनाए और उसे गर्भवती बनाया। उसने अपनी पहचान पहले गोल्डी बताई थी मगर बाद में पता चला वह मुस्लिम है। इस हकीकत के खुलने के बाद वह उसे प्रताड़ित करने लगा। कुछ दिन बाद निजामुद्दीन और उसके घरवालों ने महिला को घर से बाहर कर दिया। हर ओर से आस खत्म होने के बाद महिला थाने पहुँची और धोखेबाजी का मुकदमा दर्ज करवाया।

पहचान छिपाकर खुर्शीद और अंसारी नें हिंदू बहनों को बनाया निशाना-

सितंबर माह में दिल्ली के ओखला से एक लव जिहाद का केस सामने आया। खुर्शीद और अंसारी ने दो हिंदू बहनों को निशाना बनाया। जब लड़कियों को इस संबंध में मालूम चला तो उन्होंने किसी भी प्रकार के रिश्ते को रखने से मना कर दिया, तब इन युवकों ने पार्किंग का बहाना बनाकर लड़की के परिवार पर हमला बोल दिया। इस घटना में लड़की के पिता की टाँग टूट गई थी। उनका इलाज एम्स में चला था।

प्रिया और कशिश को मार कर शमशाद ने दफनाया उन्हीं के घर में-

मेरठ के भूड़भड़ाल से माँ बेटी की हत्या मामला भी पिछले दिनों खूब चर्चा में था। प्रिया और कशिश की हत्या करने वाला शमशाद साल 2013 में प्रिया से अमित गुर्जर बनकर मिला था। बाद में सच्चाई खुलने पर उसने रो रोकर प्रिया को अपने साथ रखे रखा। कुछ दिन बाद पता चला कि उसकी एक बीवी भी है। विवाद बढ़ने पर शमशाद ने प्रिया और कशिश को मौत के घाट उतारकर उनके ही घर में दफना दिया । इस केस में प्रिया की सहेली चंचल की सक्रियता ने शमशाद को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचाया था।

कांग्रेस नेता समीर खान पर हिंदू नाबालिग ने लगाए गंभीर आरोप-

साल 2020 के सितंबर में एक नाबालिग लड़की सतना थाने पहुँची और उसने कांग्रेस नेता समीर खान उर्फ सिकंदर पर मामला दर्ज करवाया। लड़की ने कांग्रेस नेता समीर पर यौन शोषण का आरोप लगाया। खान के ख़िलाफ़ शिकायत में लड़की ने कहा कि उसने उसे सिकंदर बन कर मुलाकात की और बाद में उसे फार्म हाउस बुलाया। वहाँ समीर ने उसका रेप किया व उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें खींचीं। फिर करीब 3 साल तक उसका शोषण करता रहा। आखिरकार लड़की ने तंग आकर पुलिस को इस संबंध में बताया और मामला दर्ज हुआ।

शौकत अली ने साहिल कुमार बन रचाई शादी, बाद में करने लगा प्रताड़ित-

शौकत अली ने भी नेहा नाम की हिंदू महिला को झूठी पहचान बताकर फँसाया और फिर उसे आर्थिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू किया। सोशल मीडिया पर वायरल अपनी वीडियो में नेहा ने कहा था कि जयपुर में काम करते हुए वह शौकत के संपर्क में आई और उसने उसे अपनी पहचान कश्मीरी हिंदू साहिल कुमार के रूप में बताई। शादी के 6 महीने बाद शौकत अली उस पर धर्मांतरण का दबाव बनाने लगा और उसने अपने परिजनों के साथ मिलकर उसका शोषण भी किया।

शिबू अली बना सचिन, लड़की पर किया चाकू से हमला-

लव जिहाद के अन्य मामले में शिबू अली हिंदू महिला से सचिन कहकर मिला। इस केस में तो लड़की ने अपनी पूरी कहानी सोशल मीडिया पर सुनाई थी। पीड़िता ने कहा था कि जब मुस्लिम युवक की सच्चाई उजागर हुई तो उसे परेशान किया जाने लगा। उससे मारपीट करके उस पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाया गया। इतना ही नहीं , उसे गौमाँस खिलाने के लिए व मौलवी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को भी कहा गया। जब महिला शिबू के चंगुल से भाग निकली तब भी शिबू ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और अपनी नाफरमानी करता देख महिला पर चाकू से हमला किया।

कानपुर में पहचान छिपाकर हिंदू लड़कियों से दोस्ती करने के मामले-

यूपी के कानपुर में हिंदू नाबालिग के साथ भी लव जिहाद का मामला सामने आया। गोपाल नगर में रहने वाली पीड़ित के परिवार ने बजरंग दल के रामजी तिवारी की मदद से फतेह अली खान उर्फ आर्यन मेहरोत्रा के खिलाफ़ अपनी शिकायत करवाई। उन्होंने बताया कि कैसे कलावा पहनकर, तिलक लगाकर वह हिंदू लड़कियों को फँसाने के लिए मंदिर में जाता था।

एक अन्य मामला कुछ दिन पहले ही कानपुर के बजरिया थाने में सामने आया था। जहाँ लकी खान नाम के एक युवक ने अपना हिंदू नाम बता कर नाबालिग लड़की को अपने प्रेम जाल में फँसाया और उसकी अश्लील तस्वीरें ले कर इस्लाम धर्म कबूलने और निक़ाह करने के लिए युवती को ब्लैकमेल करने लगा। इस केस में भी लड़की के परिजनों ने लकी खान के खिलाफ एफआईआर करवाई और बताया कि लड़की मंदिर के बाहर फूल की दुकान लगाती थी। उससे दोस्ती करने के लिए लकी खान ने अपना नाम सिर्फ लकी ही बताया। जिससे युवती को आभास नहीं हुआ कि युवक संप्रदाय विशेष से है।

अनवर ने अनु बन हिंदू महिला को फँसाया-

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी पिछले महीने की 4 अगस्त को लव जिहाद का केस देखने को मिला। आउटर दिल्ली के किराड़ी इलाके में अनवर नाम के एक लड़के ने 20 साल की लड़की को अपना नाम अनु बताकर फँसाया और फिर कई महीनों तक उसके साथ बलात्कार करता रहा। सबसे पहले उसने जब युवती के साथ गलत काम किया तब उसने उसे कोल्डड्रिंक में नशीला पदार्थ डाल कर पिलाया था। फिर उसके बेहोश होते ही उसका बलात्कार किया और पूरी घटना को शूट कर लिया। बाद में यह सिलसिला चलता रहा। एक बार उसने लड़की को विश्वास में लेने के लिए उससे मंदिर में शादी भी की। मगर कुछ समय बाद पता चला वह अनु नहीं अनवर है।

वामपंथी मीडिया, और वामपंथी राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष का विरोध तो कर रहे हैं पर सच्चाई कभी छुप नहीं सकती लव जिहाद एक बड़ा षडयंत्र है उसको रोकना चाहिए।

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Wednesday, October 21, 2020

हिन्दुओं की हत्या पर मौन रहने वालें हिन्दू ‘फ्रांस की जनता’ होना कब सीखेंगे?

21 अक्टूबर 2020


फ्रांस में एक शिक्षक की इस्लामी आतंकवादी ने हत्या कर दी। घटना श्वेत पश्चिमी विकसित राष्ट्र में हुई थी तो निंदा वैश्विक थी एवं क्षोभ सार्वजानिक। भारत में ऐसी घटनाओं का इतना सामान्यीकरण हो चुका है कि अब न जनता से प्रतिक्रिया होती है न सरकार से। यदि प्रतिक्रिया हो भी तो शाब्दिक निंदा पर ही इस्लामविरोधी इत्यादि आरोप लगा कर लोगों को चुप करा दिया जाता है। श्वेतवर्णी समाज के एक व्यक्ति के जीवन का मूल्य चार अश्वेतों के समान अमेरिकी संविधान में 1964 तक माना जाता था।




वैचारिक दासता के दौर में आज भी उसमें अधिक परिवर्तन नहीं है जब यूरोप के राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के प्रताड़ित को शरण दें तो उसे मानवता कहा जाता है परन्तु यही जब भारत नागरिकता संशोधन के द्वारा करना चाहे तो वही पश्चिमी देश झुण्ड बना कर भारत की सम्प्रभुता पर टूट पड़ते हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत में सरकार भी एक रामलिंगम, ध्रुव त्यागी, कमलेश तिवारी या राहुल राजपूत की हत्या पर सार्वजानिक वक्तव्य देने से बचती है। ऐसी मानव जीवन की क्षति पर सरकार की ओर से हर्जाना भी भिन्न-भिन्न मिलता है। सत्ता की सौतेली संतान होने का कष्ट उभर आता है, और लोग सरकार से नाराज़ हो लेते हैं।

भारतीय जनता पार्टी दूसरी बार सरकार में है परन्तु ऐसे समय रोष भाजपा के समर्थकों में अधिक दिखता है। फ्रांस के राष्ट्रपति इस जघन्य घटना की निंदा बिना लाग लपेट के इस्लामिक कट्टरवाद को जिम्मेदार ठहराते हुए कर सकते हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं? इस प्रश्न पर मेरा एक ही उत्तर है कि हमें वे तस्वीरें देखनी चाहिए जो फ्रांस की घटना के पश्चात विभिन्न शहरों में दिखती हैं। सैकड़ों की संख्या में फ्रांसीसी नागरिक सड़कों पर उतरे यह कहते हुए – “हम भयभीत नहीं हैं।” दिल्ली में राहुल राजपूत की हत्या हुई, करौली में पुजारी की हत्या हुई, उन्नाव में दो पुजारियों की हत्या हुई, पालघर में साधुओं की पुलिस के सामने हत्या हुई। हम पूछते हैं कि सरकार कुछ क्यों नहीं बोली, प्रधानमंत्री कुछ क्यों नहीं बोले?

सरकार बनने के बाद राजनीतिक दलों का काम समाप्त होता है परंतु समर्थकों का काम आरंभ होता है। नेता रोडवेज़ के ड्राइवर की तरह होते हैं और सवारी भरने पर ही बस में बैठते हैं। हज़ार लोगों का जुलूस कई शहरों में निकाल दीजिए, नेता पहुँच जाएँगे और समर्थन में भाषण भी देंगे। समर्थन में उतरी संख्या ही उनके राजनीतिक सरोकार तय करती है, उन्हें स्पष्ट बोलने का साहस देती है। झारखंड में एक हत्या हुई, केरल से लेकर दिल्ली तक लोग सड़क कर उतर गए। दिल्ली में पिछले दो महीने में दो हत्याएँ हुईं। तबरेज तो मार पीट के पाँच दिन बाद मरा, ये दोनों हत्याएँ तो तथ्यात्मक रूप से पिटाई से ही हुई। कितने लोग सड़क पर उतरे? पालघर में साधुओं की हत्या पर कितनी रैलियां निकली?

जब आप अपनी बात नहीं उठा सकते हैं तो सरकार क्यों उठाएगी? यदि लोग सड़क पर 2014 में नहीं उतरते तो आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में नहीं होती। बस का ड्राइवर बस यात्रियों को पहुँचाने के लिए चलाता है, लॉंग ड्राइव के लिए नहीं। कोई भी बस का ड्राइवर बिना सवारी ख़ाली बस लेकर कही नहीं जाएगा।

राजनीतिक बस पर चढ़िये, राजनीति भी बदलेगी, राजनैतिक संवाद भी। दस बड़े शहरों में दो-दो हज़ार की संख्या में लोग सड़क पर उतर कर पालघर पर न्याय मांगते तो मोदी क्या राष्ट्रपति भी राष्ट्र को संबोधित कर के निंदा करते। पालघर में कैमरे पर साधुओं की हुई हत्या पर तो सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय मांगने वाले भी चुप हैं।

राजनीति एक बस स्टैंड है। हम एक नागरिक के नाते उस बस पर चढ़ना चाहते हैं जो भरी हुई है क्योंकि हमें लगता है वो बस पहले निकलेगी। सरकार भरी हुई बस को पहले स्टैंड से निकालती है। दोनों बातों में विरोधाभास है। हम टहल रहे हैं कि ड्राइवर आए तो बस में चढ़ेंगे, ड्राइवर चाय की प्याली पर प्याली पीते हुए दूर से दृष्टि रखे है की सवारियाँ भरें तो बस में जा के बैठे। क्या कार सेवा के बिना राम जन्मभूमि का निर्णय होता? न्यायपालिका उसे कश्मीरी पंडितों के केस की तरह प्राचीन मान कर न्यायपालिका से बाहर क्यों नहीं भेज देती? क्योंकि उस प्रश्न की बस तो अयोध्या गंतव्य के लिए निकली वह सवारियों से भरी हुई है।

सरकार आपके सोशल मीडिया के उत्कर्ष प्रलाप को पढ़कर काम नहीं करेगी। यह न तो सरकार के स्वभाव में है, न ही यह सरकार के लिए उचित ही है। सोशल मीडिया पर तो लोग मिनी स्कर्ट पर भी क्षोभ प्रकट करने लगते हैं, उस विलाप और प्रलाप पर सरकार कोई रूचि क्यों ले। उस पर कोई दल अपनी राजनीतिक पूँजी क्यों लगाएगा? भारत में 13 मिलियन या 1.3 करोड़ लोग ट्विटर पर हैं। मान लीजिए भाजपा के वोट शेयर के बराबर, लगभग 40% भाजपा समर्थक हैं। ये बने कोई पचास लाख। 130 करोड़ के देश में क्या राजनीति पचास लाख लोगों के विचारों पर होगी? मैं तो यह मानता हूँ कि ऐसा भ्रम पैदा कर के सत्ता पक्ष व विपक्षियों को व्यस्त रखा जाता हैं। कांग्रेस की सम्पूर्ण राजनीति सोशल मीडिया पर सिमट गई है और यह मान कर चल रही है की सरकारें वहीं से बनती हैं। राहुल गाँधी ट्विटर पर ज्ञान देते हैं, चुनाव हार जाते हैं।

घरों में बैठ कर समाज या सरकार दोनों नहीं बदली जाती। विपरीत विचारधारा सड़क पर उतरती है, अदालत में जाती है, माहौल बनाती है और सरकार को उस पर झुकना ही पड़ता है। महाराष्ट्र में यदि जनता धरने पर उतरती, अदालत में अर्ज़ी दाखिल होती तो पालघर के लिए जाँच के लिए केंद्रीय ब्यूरो क्यों न उतरता या किसी न्यायाधीश के निरीक्षण में जाँच क्यों नहीं होती। साधुओं के परिवारों को, राहुल राजपूत के परिवार को शासन से वही मदद क्यों नहीं मिलती जो जुनैद और तबरेज़ को मिली। मोदी जी भी सार्वजनिक मंचों से घटना की निंदा करते। 130 करोड़ के देश में एक हत्या अन्य हत्याओं के मुक़ाबले प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के ध्यान या समय के योग्य क्यों है, इसका निर्णय इस पर है कि मूक रहने पर और बोलने पर कितना समर्थन मिलता है।

अपेक्षाएं होती हैं तो ऐसे प्रश्न उठते हैं। ऐसे ही प्रश्न योगी आदित्यनाथ से भी पूछे जाते हैं। उनसे यही कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनाए हो प्रभु, लठैत नहीं रखे हो। सड़क बन रही है, कोरोना नियंत्रण में है, दंगे दिल्ली से उत्तरप्रदेश नहीं फैले, माफिया के घर टूट रहे हैं, उद्योग आ रहे हैं। गोरखपुर में बालकों की जापान इनसेमफिलिटिस से मृत्यु लगभग बंद हो गई है। प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री का पद संवैधानिक पद है। अब कॉलोनी में ‘जागते रहो, जागते रहो’ कर के भी महाराज जी लाठी पीटते तो नहीं घूमेंगे।

एक ओर वह वर्ग या समाज है जो राजनीतिक एवं वैधकीय अतिसक्रियता का लाभ शासन से और न्यायपालिका से अपनी पसंद के निर्णय एवं वक्तव्य निकाल रहा है। आपको सत्ता का वही स्नेह चाहिए तो आपको भी सड़क पर आना होगा, एक संख्या बल सड़क पर दिखाना होगा जिसकी विदेशी मीडिया भी उपेक्षा न कर सके। यदि दिल्ली की या मुंबई की सड़कें भर जाएँ पालघर पर तो उन्हें रिपोर्ट करना होगा, उन्हें इसका कारण भी अपनी रिपोर्ट में लिखना होगा।

आप न्यायपालिका का ध्यानाकर्षण इन विषयों पर करते रहे तो उन पर निर्णय भी होंगे और समाचार पत्रों को छापने भी होंगे। आप बीस करोड़ पोस्ट कार्ड लिख के प्रधानमंत्री कार्यालय भेजेंगे तो प्रधानमंत्री भी उस पर ध्यान देंगे, कानून भी संसद में लाएँगे। मंदिर भी सरकारी प्रतिबन्ध से बाहर निकालेंगे, संभवतः संविधान के आपातकाल में किये गए संशोधन भी हटेंगे यदि जैसा वामपंथी करते हैं दक्षिणपंथी कानून, मीडिया और सड़क पर प्रदर्शन को साथ में जोड़ कर मुहिम चलाते हैं।

भारत पर गौरी या ख़िलजी की जीत का बड़ा कारण जनता का जातियों में कटा रहना था, जिसके कारण बड़ा वर्ग न युद्ध के लिए प्रशिक्षित था ना ही उसमें रुचि रखता था। जैसे आज लोग पालघर या दिल्ली लिंचिंग पर मोदी को कोसते हैं, तब पृथ्वीराज चौहान को कोसते होंगे। सोचिए पसंद की सरकार को सत्ता पर बैठा कर जनता के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती है। सत्ता वर्षों से बने समीकरणों को, लोकतंत्र ही सामाजिक सिद्धांतों में परिवर्तन ला सकता। एक राष्ट्र की जनता जब अपने शासकों को सामाजिक परिवर्तनों का उत्तरदायित्व सौंप कर उदासीन एवं निष्क्रिय हो जाती है, उसका क्षेत्र जावा से, वियतनाम से, ईरान से, बर्मा से पाकिस्तान और बांग्लादेश से संकुचित होता होता वहाँ पहुँच जाता है जहाँ एक संस्कृति के लिए अपने पँजों पर खड़े होने की भूमि भी नहीं होती है।

संस्कृति की रक्षा निष्क्रिय प्रेम से नहीं होती है, सक्रिय कर्म से होती है। यदि भ्रष्ट्राचार के विरोध में जनता 2014 में सड़क पर नहीं उतरी होती, तो आज प्रधानमंत्री मोदी भी सत्ताधीश नहीं हुए होते। संख्या बल वही सक्षम होता है जो साक्ष्य होता है, स्पष्ट होता है। सरकार को चुनकर हमने कोई ठेका नहीं दिया है और दिया भी हो तो उपभोक्ता की उपेक्षा की स्थिति में तो ठेकेदार उतना ही और उसी गुणवत्ता का कार्य करता है जितना न्यूनतम आवश्यक हो। सरकार से उस न्यूनतम सीमा से अधिक कार्य कराना हो तो बोलना होगा, लिखना होगा, पहुँचना होगा, सबसे बढ़कर – एक हो कर दिखना होगा।

एक फ़िल्म कुछ वर्षों पहले आई थी- गुलाल! उसके एक वाक्य को शिष्टता का आवरण पहना कर यह लेख समाप्त करता हूँ- “अपने पृष्ठपटल पर बैठे रहने से स्वराज्य नहीं आएगा, धर्म और संस्कृति की रक्षा नहीं होगी।” राष्ट्रीय राजनीति उतनी ही नैतिक होगी जितना नागरिक जागृत होगा। एक बार फिर फ्रांस में सड़कों पर उमड़ी, श्रद्धांजलि देती जनता का चित्र देखें और विचार करें।

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Tuesday, October 20, 2020

मंदिरों पर राजकीय कब्जा क्यों? हिन्दू आज भी जजिया भर रहे हैं (भाग-2)

 

20 अक्टूबर 2020

 
पारंपरिक भारत में किसी हिन्दू राजा ने मंदिरों पर अपना अधिकार, या नियंत्रण नहीं जताया था, न कभी टैक्स वसूला था। भारतीय परंपरा में राजा को धर्म या धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप करने का कभी कोई उदाहरण नहीं मिलता। वें तो सहायता व दान देते थे, न कि लेते थे जो स्वतंत्र भारत की राजसत्ता कर रही है। यह जबरदस्ती मुगल काल के अवशेष हैं जब मंदिरों को तरह-तरह के राजकीय अत्याचार या नियंत्रण को झेलना पड़ता था। फिर अंग्रेज शासकों ने 1817 ई. में उसी तरह के कुछ नियंत्रण बनाए। उस का लाभ क्रिश्चियन मिशनरियों ने उठाया, जिन की धर्मांतरण योजनाओं को मंदिरों को कमजोर करने से कुछ मदद मिली। हालाँकि बाद में, 1863 ई. तक यहाँ अंग्रेज शासकों ने कई मंदिर हिन्दू न्यासियों को वापस भी सौंप दिए। क्योंकि उसे कुछ कारणों से इंग्लैंड में पसंद नहीं किया गया।




लेकिन फिर 1925 ई. में अंग्रेज शासकों ने भारत में धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण करने का कानून बनाया। लेकिन क्रिश्चियनों और मुसलमानों द्वारा तीव्र विरोध के कारण 1927 ई. में वह कानून संशोधित किया गया, और उन्हें उस कानून से छूट दे दी गई। इस प्रकार, केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण रखने का कानून रहा। प्रायः दक्षिण भारत में, क्योंकि विशाल, समृद्ध, संपन्न मंदिर वहीं थे। उत्तर भारत तो पिछले इस्लामी शासकों की बदौलत लगभग मंदिर-विहीन हो चुका था। यह भी ध्यातव्य है कि ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का उपाय करते हुए जहाँ 1925 ई. में हिन्दुओं को मंदिरों के संचालन से वंचित किया गया, सिखों को विशेष शक्ति-संपन्न बनाया गया। उसी साल अंग्रेजों ने सिख गुरुद्वारा एक्ट बनाकर गुरुद्वारों का संचालन एक विशेष समूह को सौंप दिया। यह बहुत बड़ा निर्णय साबित हुआ, जिस से सिखों के एक पंथ को विशिष्ट, एकाधिकारी शक्ति प्राप्त हो गई। उस से पहले गुरुद्वारे तरह-तरह के पंथों द्वारा चलते थे।

फिर, 1935 ई. में एक और कानून बनाकर अंग्रेज सरकार ने किसी भी मंदिर को चुन कर अपने नियंत्रण में लेने का प्रावधान किया। इस तरह, अंग्रेजों ने अपने-अपने धर्म-संस्थान संचालन के लिए क्रिश्चियनों-मुसलमानों, हिन्दुओं, और सिखों के लिए तीन तरह के कानून बना दिए। ताकि अपने हितों के लिए वे सहज ही अलग-अलग महसूस करें। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत की देशी सरकार ने भी शुरू में ही (1951 ई.) हिन्दू धार्मिक संस्थानों को अपने नियंत्रण में रख सकने का कानून बनाया। उद्देश्य यह बताया गया ताकि उस की ‘सुचारू व्यवस्था’ की जा सके। यह किसी ने नहीं पूछा कि वही व्यवस्था मस्जिद या चर्च की होनी क्यों अनावश्यक है? यह व्यवस्था कैसी रही है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 1986-2005 ई. के बीच बीस वर्षों में तमिलनाडु में मंदिरों की हजारों एकड़ जमीन ‘चली’ गई। अन्य हजारों एकड़ पर भी अवैध अतिक्रमण हो चुका है! यह सरकारी कब्जे की सुचाऱू व्यवस्था का एक नमूना है।

दूसरा नमूना यह कि अनेक मंदिरों से अनेकानेक बहुमूल्य मूर्तियाँ चोरी होती रही हैं, जो अनमोल होने के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक विरासत भी है। किन्तु आज तक किसी को उस का जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। किसी भी गैर-सरकारी नियंत्रण में ऐसा होना असंभव है कि इतनी बड़ी चोरियों पर किसी की जिम्मेदारी न बने। न किसी को दंड मिले! तीसरे, कई प्रतिष्ठित मंदिरों की पारंपरिक पुरोहित व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। सरकारी अमलों ने उस की परवाह नहीं की, या उस में हस्तक्षेप कर जाने-अनजाने बिगाड़ा। कई मामलों की तरह कांग्रेस के ‘स्यूडो सेक्यूलरिज्म’ और भाजपा के ‘रीयल सेक्यूलरिज्म’ में इस बिन्दु पर भी कोई अंतर नहीं है। राजस्थान में भाजपा राज में मंदिरों की कुछ संपत्ति पर भी कब्जा किया गया था। हरियाणा में भी समाचार हैं कि हिसार जिले के दो महत्वपूर्ण मंदिरों को कब्जे में लेने पर सत्ताधारी सोच रहे हैं।

आश्चर्य की बात यह भी है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एटॉर्नी जेनरल वेणुगोपाल ने भी कहा था कि मंदिरों के संचालन में राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। उन्होंने संकेत किया कि एक पंथ-निरपेक्ष राज्य प्रणाली में सरकार द्वारा मंदिरों पर नियंत्रण रखना उपयुक्त नहीं है। यह सब कहे जाने के बाद से साल भर से भी ज्यादा बीत चुका। मगर चूँकि मामला हिन्दू धर्म-समाज का है, इसीलिए इस पर हर प्रकार के सत्ताधारियों की उदासीनता एक सी है। कोर्ट में पिटीशन या कार्यपालिका को निवेदन, सब ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं।

प्रश्न हैः भारतीय राज्यसत्ता हिन्दुओं को अपने मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने के अधिकार से जब चाहे क्यों वंचित करती है? जबकि मुस्लिमों, ईसाइयों की संस्थाओं पर कभी हाथ नहीं डालती। यह हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव नहीं तो और क्या है? केरल से लेकर तिरूपति, काशी, बोधगया और जम्मू तक, संपूर्ण भारत के अधिकांश प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा कर लिया गया है। इन में हिन्दू जनता द्वारा चढ़ाए गए सालाना अरबों रूपयों का मनमाना उपयोग किया जाता है।

जिस प्रकार, चर्च, मस्जिद और दरगाह अपनी आय का अपने-अपने धार्मिक विश्वास और समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं – वह अधिकार हिन्दुओं से छिना हुआ है! कई मंदिरों की आय दूसरे धर्म-समुदायों के क्रियाकलापों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से हिन्दू मंदिरों की आय से मुसलमानों की हज सब्सिडी देने की बात कई बार जाहिर हुई है।

यह किस प्रकार का सेक्यूलरिज्म है? यह तो स्थाई रूप से हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव है, जो सहज न्याय के अलावा भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है। सामान्य मानवीय समानता के विरुद्ध तो है ही। यह अन्याय राजसत्ता के बल से हिन्दू जनता पर थोपा गया है। इस पर कोई राजनीतिक दल आवाज नहीं उठाता।

कुछ लोग तर्क करते हैं कि हिन्दू मंदिरों, धार्मिक न्यासों पर राजकीय नियंत्रण संविधान-सम्मत है। संविधान की धारा 31A के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्ति का अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1997) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है।” अतः यदि हमारे देश में राज्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उस का संचालन अपने हाथ में ले लिया, तो यह ठीक ही है।

वस्तुतः आपत्ति की बात यह है कि संविधान की धारा 31(ए) का प्रयोग केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर हुआ है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तियाँ कितने भी घोटाले, विवाद, हिंसा या गड़बड़ी की शिकार हों, उन पर राज्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी रिलीजन का नाम लेकर छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में भी ‘किसी धार्मिक संस्था’ या ‘ए रिलीजन’ की बात की गई है। मगर व्यवहारतः केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर राज्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। चाहे बहाना सही-गलत कुछ हो।

इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में केवल हिन्दू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार नहीं, जो अन्य को है। यह अन्याय हिन्दू समुदाय को अपने धर्म और धार्मिक संस्थाओं का, अपने धन से अपने धार्मिक कार्यों, विश्वासों का प्रचार-प्रसार करने से वंचित करता है। उलटे, हिन्दुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए धन का हिन्दू धर्म के शत्रु मतवादों को मदद करने में दुरुपयोग करता है। यह हमारी राज्यसत्ता द्वारा और न्यायपालिका के सहयोग से होता रहा है – इस अन्याय को कौन खत्म करेगा? (जारी...) - डॉ. शंकर शरण

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Monday, October 19, 2020

भारत में 4 लाख हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा, चर्च व मस्जिद पर नहीं (भाग 1)

19 अक्टूबर 2020


डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता थे। यह उन्हीं का कथन है कि हमारा संविधान सेक्यूलर नहीं क्योंकि “यह विभिन्न समुदायों के बीच भेद-भाव करता है।” यह तब की बात है, जब संविधान की प्रस्तावना में छेड़-छाड़ नहीं हुई थी। बाद में तो संविधान में ‘सेक्यूलर’ शब्द जोड़ कर और भी घात किया गया, जिसे संविधान निर्माताओं ने विचार करके खारिज किया था। वे इस अवधारणा से बखूबी परिचित थे, इसलिए उसे यहाँ अनुचित समझा। मगर कैसी विडंबना कि 1976 ई. में एक नेहरूवादी-कम्युनिस्ट चौकड़ी ने इस शब्द को संविधान में प्रवेश करा दिया। फिर जो दूसरे जातिवादी-राष्ट्रवादी आए, उन्होंने भी 1978 ई. में इस की पुष्टि कर दी।




मगर दूसरी विडंबना उस से कम नहीं। जब संविधान को ‘सेक्यूलर’ घोषित कर दिया गया, उस के बाद से नीति-निर्माण को निरंतर हिन्दू-विरोधी रुझान दे दिया गया। अर्थात् सेक्यूलरिज्म अपने यूरोपीय अर्थ सभी धर्मों से दूरी या समानता नहीं, बल्कि एक हिन्दू-विरोधी प्रवृत्ति, नीति सी बन गई। चूँकि सभी दलों ने इसे समर्थन दे दिया, इसलिए वह बदस्तूर चल रहा है। यद्यपि कई नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और न्यायविद् इस अन्याय को महसूस करते हैं। मगर कोई कुछ नहीं करते। यह एक तीसरी विडंबना है। क्योंकि यह सब मुख्यतः हिन्दू परिवारों में जन्मे कर्णधारों, विद्वानों और न्यायाधीशों द्वारा होता हैं।

इन सारी गड़बड़ियों में जो बातें सब से आश्चर्यजनक लगती है, उन में हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा सब से ऊपर है। विशेषकर हिन्दूवादी कहलाने वाले संघ-परिवार के शासनों में भी यह जारी रहना! वह भी तब, जब सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ-साफ कहा है कि ‘‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’’ (8 अप्रैल 2019)। सुप्रीम कोर्ट हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को कई बार अनुचित कह चुकी है। उस ने चिदंबरम के प्रसिद्ध नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश 2014 ई. में दिया था। इस के अलावा भी दो वैसे फैसले आ चुके हैं। फिर भी, जहाँ-तहाँ विभिन्न राज्य सरकारें हिन्दू मंदिरों पर कब्जा बनाए हुए हैं।

इस के विपरीत, किसी चर्च अथवा मस्जिद को सरकार कभी नहीं छूती। क्या इस से बड़ा धार्मिक अन्याय और संविधान में मौजूद ‘नागरिक समानता’ का मजाक संभव है? जो दलीलें हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा रखने के पक्ष में दी जाती हैं, वह सब मस्जिदों, चर्चों पर भी लागू हैं। किन्तु केवल हिन्दू मंदिरों पर कब्जा है, शेष सभी समुदाय अपने-अपने धर्म-स्थान स्वयं चलाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं!

आश्चर्य का दूसरा पहलू यह है कि स्वयं भाजपा समर्थक बौद्धिक मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं!  स्वयं डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे महारथी एक भाजपा शासित राज्य में हाल में मंदिरों पर नया सरकारी कब्जा करने के विरुद्ध लड़ रहे हैं। मगर सत्ताधीशों द्वारा कोई सुनवाई नहीं। जब कि हिन्दू मंदिरों को मुक्त करने में न कोई कानून बनाना है, न कोई बजट प्रावधान करना है, न कोई विरोध-आंदोलन झेलने का डर है।

गत वर्ष पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बोबड़े ने कहा, “मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?” उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण भी दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं भी होती रही हैं। कारण यही है कि भक्तों के पास देवमूर्तियों की रक्षा का अधिकार ही नहीं है! जिन्होंने वह अधिकार ले लिया है, वे उसी तरह बेपरवाह काम करते हैं जैसे सरकारी विभाग। यही नहीं, वे धार्मिक गतिविधियों, रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं। कई बार अनजाने, तो कई बार जान-बूझ कर भी। सरकारी अफसरो को तो मात्र नागरिक शासन चलाने की ट्रेनिंग मिली है। इसलिए कोई अफसर अपने वैचारिक पूर्वग्रह, अज्ञान या मतवादी कारणों से हिन्दू रीतियों के प्रति उदासीनया या दुराग्रह भी दिखा सकता है।

अभी देश भर में 4 लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। एक भी चर्च या मस्जिद पर नहीं। अकेले आंध्र प्रदेश में 34 हजार मंदिर सरकारी कब्जे में हैं। कम से कम 15 राज्य सरकारें उन लाखों मंदिरों पर नियंत्रण रखती हैं। मंदिरों के प्रशासक नियुक्त करती है। वे जैसे ठीक समझें व्यवस्था चलाते हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार अलग। इस बीच, जैसा सरकारी विभागों में प्रायः होता है, मंदिरों के कोष और संपत्ति के मनमाने उपयोग, दुरूपयोग के समाचार आते रहते हैं। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सत्ताधारी बहुत पहले से मंदिरों की आय का उपयोग ‘अल्पसंख्यक’ समुदायों को विविध सहायता देने में करते रहे हैं। यह निस्संदेह हिन्दू-विरोधी कार्य भी है। सर्वविदित है कि कुछ बाहरी धर्म हिन्दू धर्म पर प्रहार करते रहे हैं, छल-बल से हिन्दुओं का धर्मांतरण कराते रहे हैं, अपने दबदबे के इलाकों में उन्हें मारते-भगाते रहे हैं। उन्हीं समुदायों को हिन्दू मंदिरों की आय से सहायता देना सीधे-सीधे हिन्दू धर्म को चोट पहुचाने के लिए ही सहायता देना है!

इस बीच, राजकीय कब्जे वाले हिन्दू मंदिरों के पुजारी मूक दर्शक बना दिए गए हैं। उन्हें अपने ही मंदिरों की देख-रख से वंचित या बाधित कर दिय़ा गया। वे मंदिरों के पारंपरिक शैक्षिक, कला, संस्कृति या सेवा संबंधी कार्य नहीं कर सकते जो अंग्रेजों के शासन से पहले तक होते रहे थे। जैसे, पाठशालाएं, वेदशालाएं, गौशालाएं, चिकित्सालय अथवा शास्त्रीय नृत्य आयोजन, आदि।

इस प्रकार, हिन्दू मंदिर के पुजारियों की तुलना में किसी मस्जिद के ईमाम या चर्च के बिशप की सामाजिक स्थिति और मजबूत होती है। वे अपने समुदाय को समर्थ, सबल बनाने के लिए मस्जिद और चर्च का बाकायदा इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। यह भी तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं की एक गंभीर हानि है, जिसे हिसाब में लेना चाहिए। विशेषकर भारत में यह हानि अब अधिक खतरनाक है।

अभी कुछ सत्ताधारी कोरोना-संकट में धन की कमी को मंदिरों में मौजूद सोना से पूरा करने की योजना बना रहे हैं या बना चुके हैं। हाल में वरिष्ठ कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस की खुली माँग की। कई बार मंदिरों में जमा सोने को सरकार दबाव देकर जबरन रूपयों में बदलवाती है, ताकि उस पैसे का उपयोग कर सके। इस बीच, सोने को रूपये में बदल लेने से आगे जो घाटा होगा वह अलग।

यह सब हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध अनुचित, पक्षपाती जबरदस्ती है। जो इसीलिए चल रही है क्योंकि मंदिरों पर सरकारी कब्जा है। वे किसी मस्जिद या चर्च की संपत्ति से राजकीय कोष की जरूरत पूरी करने की नहीं सोचते। मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना संविधान के अनुच्छेद 25-26 का भी उल्लंघन है। पर कौन क्या करे, जब बाड़ ही खेत को खाने लगे!

फिर, सरकारी कब्जे के कारण मंदिरों से 13-18 प्रतिशत अनिवार्य सर्विस-टैक्स वसूला जाता है। यह भी मस्जिदों या चर्चों से नहीं वसूला जाता। कई मंदिरों में ‘ऑडिट फीस’, ‘प्रशासन चलाने’ की फीस, इन्कम टैक्स, और दूसरे तरह के टैक्स भी लगाए जाते हैं! जबकि उन्हीं मंदिरों में वेद-पाठ करने वालों, अर्चकों, आदि को जो पारंपरिक दक्षिणा आदि मिलती थी, वह नहीं मिलती या नगण्य़ मिलती है। किसी-किसी मंदिर की आय का लगभग 65-70 प्रतिशत तक विविध मदो में सरकार हथिया लेती है। जैसे, पलानी (तमिलनाडु) के दंडयुतपाणि स्वामी मंदिर में।  (जारी...) - डॉ. शंकर शरण

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Sunday, October 18, 2020

इस्लाम मज़हब के 29 देश जहां महिलाएं दूसरे धर्म में शादियां नहीं कर सकती

18 अक्टूबर 2020


भारत में तनिष्क का विज्ञापन आने के बाद उसका काफी विरोध हुआ और वो हटा भी दिया लेकिन भारत में हमेशा यही चलता आया है, लव जिहाद को बढ़ाने के लिए सिनेमा, सीरियलो, विज्ञापनों में हमेशा हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़कों का प्यार दिखाया जाता है जिसके कारण हिंदू युवतियां लव जिहाद का जल्दी से शिकार हो जाएं और उसमें फंस कर अपना जीवन नारकीय बना लें, जब ऐसे सिनेमा, विज्ञापनों का विरोध किया जाता है तब सेक्युलर बोलते हैं कि प्यार को धर्म से नही जोड़ना चाहिए, प्यार किसी से भी किया जाता है आदि आदि अनेक उदाहरण देते हैं और तथाकथित बुद्धिजीवी बोलते हैं जब महिला हिंदू हो और लड़का मुस्लिम हो तो सब अच्छा होता है लेकिन महिला मुस्लिम हो और लड़का हिंदू हो तो उसकी हत्या कर दी जाती है फिर भी ये लोग चुप रहते हैं ओर तो ओर जब 29 मुस्लिम देशों में एक भी मुस्लिम महिला दूसरे किसी भी धर्म के साथ शादी नहीं कर सकती तब ये लोग मौन धारण करते हैं इसमें महिलाओं की स्वतंत्रता पर एक शब्द भी नही निकालते हैं।




अफगानिस्तान में मुस्लिम महिला किसी दूसरे मजहब से शादी नहीं कर सकती। इसी तरह से अल्जीरिया का भी कानून है। वैसे तो इस देश में लॉ ऑफ पर्सनल स्टेटस 1984 लागू है जो शादी के बारे में अलग से कोई बात नहीं कहता। हालांकि इसकी धारा 222 में इस्लामिक शरिया को मानने की बात है। बहरीन में भी यही नियम है।

अब बात करते हैं पड़ोसी देश बांग्लादेश की। यहां हनाफी मान्यता के मुताबिक मुस्लिम पुरुष, अपने मजहब की महिला के अलावा क्रिश्चियन या यहूदी महिलाओं से शादी कर सकता है। लेकिन मूर्ति पूजा करने वालों यानी हिंदुओं से शादी मना है। ये शादी अवैध होती है। दूसरी ओर महिलाएं केवल और केवल मुस्लिम युवक से ही शादी कर सकती हैं।

ब्रुनेई में वैसे तो गैर मजहबी शादी पर अलग से बात नहीं है। खासकर Islamic Family Law Act (16) ऐसी कोई बात नहीं करता, जिससे से अनुमान हो सके कि वहां दूसरे मजहब में शादी नहीं हो सकती। वहीं फैमली लॉ एक्ट की धारा 47 में साफ है कि अगर शादी में कोई भी एक पार्टी धर्म छोड़ देती है या मुस्लिम से अलग धार्मिक मान्यता ले लेती है तो भी उसकी शादी तब तक मान्य नहीं होगी, जब तक खुद कोर्ट न कह दे।

ब्रुनेई में शफी मान्यता के मानने वाले हैं। इसके तहत  मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम पुरुष के अलावा किसी दूसरे धर्म में शादी नहीं कर सकती हैं।

स्टेट डिपार्टमेंट 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक ब्रुनेई में मुस्लिम और नॉन-मुस्लिम के बीच शादी की इजाजत नहीं है। वहीं अगर कोई नॉन-मुस्लिम किसी मुसलमान से शादी करना चाहे तो इसे इस्लाम स्वीकारना होता है। अधिकारी इस नियम को किसी शादी को मान्यता न देकर पालन करवाते हैं। इस नियम की अलग से कोई कानूनी व्याख्या नहीं है।

इस्लामिक कानून मानने वाले ऐसे 29 मुल्क हैं, जो दो मजहबों के बीच शादी को मान्यता नहीं देते हैं। इनके साथ-साथ वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी भी हैं, जिसमें मुस्लिमों को दूसरे मजहबों में शादी की मनाही है, खासकर अगर वे मूर्ति पूजा करने वाले हों। ईरान और इराक में ये नियम काफी सख्त हैं और अगर कपल में से एक की धार्मिक मान्यता मुस्लिम न हो, तो उन्हें अलग कर दिया जाता है।

सैर-सपाटे के लिए ख्यात देश मलेशिया में भी नियम काफी सख्त हैं। किसी भी मुस्लिम महिला अन्य धर्म के पुरूष के साथ शादी नही कर सकती।

भारत देश हिंदू बाहुल्य है हिंदू सहिष्णु होते है उसका फायदा वामपंथी, तथाकथित बुद्धिजीवी, सेक्युलर, बॉलीवुड और मीडिया वाले जमकर फायदा उठाते हैं। वें हमेशा हिंदू विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। वें दिन रात इसमे ही लगे रहते हैं कि कैसे भी करके हिंदू संस्कृति को कैसे मिटाया जाए, वे फिल्में, विज्ञापनों, वेब सिरजो, इंटरनेट, पुस्तके, मीडिया, टीवी आदि द्वारा हिंदुओं का ब्रेनवॉश करते हैं। इन षडयंत्र को भोले हिंदू समझते नहीं हैं। वें अपने बच्चों को महान सनातन हिंदू धर्म के संस्कार नही देते हैं। जिसके कारण बच्चे भी सेक्युलर बन जाते हैं और फिल्मे, सीरियल आदि देखकर अपने धर्म से ही नफरत करने लग जाते हैं और कुछ लड़कियां तो लव जिहाद में फंस जाती हैं फिर पूरी जिंदगी नारकीय जीवन जीती हैं फिर कुछ कर नही पाती हैं माँ-बाप भी दुखी हो जाते हैं।

अतः सभी मां-बाप अपने बच्चों को सनातन धर्म के दिव्य संस्कार जरूर दें और ऐसे षडयंत्र का विरोध जरूर करें।

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Saturday, October 17, 2020

जानिये नवरात्रि कब से और कैसे शुरू हुई? उसका महत्त्व एवं इतिहास..

17 अक्टूबर 2020


नवरात्रि महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गा का त्यौहार है । जिनकी स्तुति कुछ इस प्रकार की गई है,




_सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।_
_शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।_

अर्थ : सर्व मंगल वस्तुओं में मंगलरूप, कल्याणदायिनी, सर्व पुरुषार्थ साध्य करानेवाली, शरणागतों का रक्षण करनेवाली, हे त्रिनयने, गौरी, नारायणी ! आपको मेरा नमस्कार है ।

1. मंगलरूप त्रिनयना नारायणी अर्थात मां जगदंबा !

जिन्हें आदिशक्ति, पराशक्ति, महामाया, काली, त्रिपुरसुंदरी इत्यादि विविध नामों से सभी जानते हैं ।  जहां पर गति नहीं वहां सृष्टि की प्रक्रिया ही थम जाती है । ऐसा होते हुए भी अष्ट दिशाओं के अंतर्गत जगत की उत्पत्ति, लालन-पालन एवं संवर्धन के लिए एक प्रकार की शक्ति कार्यरत रहती है । इसी शक्ति को आद्याशक्ति कहते हैं । उत्पत्ति-स्थिति-लय यह शक्ति का गुणधर्म ही है । शक्ति का उद्गम स्पंदनों के रूप में होता है । उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र निरंतर चलता ही रहता है ।

श्री दुर्गासप्तशतीके अनुसार श्री दुर्गा देवी के तीन प्रमुख रूप हैं,

. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्व का  प्रतीक हैं ।

2. महालक्ष्मी, जो ‘दिक’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।

3. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्व का प्रतीक हैं ।

जगत का पालन करने वाली जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिंदू धर्म में वर्ष में दो बार नवरात्रि के रूप में, विशेष रूप से की जाती है ।

वासंतिक नवरात्रि : यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।

शारदीय नवरात्रि : यह उत्सव आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।

2. ‘नवरात्रि’ किसे कहते हैं ?

नव अर्थात प्रत्यक्षत: ईश्वरीय कार्य करनेवाला ब्रह्मांड में विद्यमान आदिशक्तिस्वरूप तत्त्व । स्थूल जगत की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, प्रत्यक्ष तेजतत्त्वात्मक प्रकाश का अभाव तथा ब्रह्मांड की दृष्टि से रात्रि का अर्थ है, संपूर्ण ब्रह्मांड में ईश्वरीय तेज का प्रक्षेपण करने वाले मूल पुरुषतत्त्व का अकार्यरत होने की कालावधि । जिस कालावधि में ब्रह्मांड में शिवतत्त्व की मात्रा एवं उसका कार्य घटता है एवं शिवतत्त्व के कार्यकारी स्वरूप की अर्थात शक्ति की मात्रा एवं उसका कार्य अधिक होता है, उस कालावधि को ‘नवरात्रि’ कहते हैं । मातृभाव एवं वात्सल्य भाव की अनुभूति देनेवाली, प्रीति एवं व्यापकता, इन गुणों के सर्वोच्च स्तर के दर्शन कराने वाली जगदोद्धारिणी, जगत का पालन करने वाली इस शक्ति की उपासना, व्रत एवं उत्सव के रूप में की जाती है ।

3. ‘नवरात्रि’ का इतिहास

- रामजी के हाथों रावण का वध हो, इस उद्देश्य से नारद ने राम से इस व्रत का अनुष्ठान करने का अनुरोध किया था । इस व्रत को पूर्ण करने के पश्चात रामजी ने लंका पर आक्रमण कर अंत में रावण का वध किया ।

- देवी ने महिषासुर नामक असुर के साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक युद्ध कर, नवमी की रात्रि को उसका वध किया । उस समय से देवी को ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नाम से जाना जाता है ।

4. नवरात्रि का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

- ‘जग में जब-जब तामसी, आसुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदारात्मक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों को छलते हैं, तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः अवतार धारण करती हैं । उनके निमित्त से यह व्रत है ।
- नवरात्रि में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है । देवीतत्त्व का अत्यधिक लाभ लेने के लिए नवरात्रि की कालावधिमें ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः ।’ नाम जप अधिकाधिक करना चाहिए ।

नवरात्रि के नौ दिनों में प्रत्येक दिन बढ़ते क्रम से आदिशक्ति का नया रूप सप्त पाताल से पृथ्वी पर आनेवाली कष्टदायक तरंगों का समूल उच्चाटन अर्थात समूल नाश करता है । नवरात्रि के नौ दिनों में ब्रह्मांड में अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगें एवं आदिशक्ति की मारक चैतन्यमय तरंगों में युद्ध होता है । इस समय ब्रह्मांड का वातावरण तप्त होता है । श्री दुर्गा देवी के शस्त्रों के तेज की ज्वालासमान चमक अति वेग से सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियों पर आक्रमण करती है । पूरे वर्ष अर्थात इस नवरात्रि के नौवें दिन से अगले वर्ष की नवरात्रि के प्रथम दिन तक देवी का निर्गुण तारक तत्त्व कार्यरत रहता है । अनेक परिवारों में नवरात्रि का व्रत कुलाचार के रूप में किया जाता है । आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा से इस व्रत का प्रारंभ होता है ।

5. नवरात्रि की कालावधि में सूक्ष्म स्तर पर होने वाली गतिविधियां:-

नवरात्रि के नौ दिनों में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में एक सहस्र गुना अधिक सक्रिय रहता है । इस कालावधि में देवीतत्त्व की अतिसूक्ष्म तरंगें धीरे-धीरे क्रियाशील होती हैं और पूरे ब्रह्मांड में संचारित होती हैं । उस समय ब्रह्मांड में शक्ति के स्तर पर विद्यमान अनिष्ट शक्तियां नष्ट होती हैं और ब्रह्मांड की शुद्धि होने लगती है । देवीतत्त्व की शक्ति का स्तर प्रथम तीन दिनों में सगुण-निर्गुण होता है । उसके उपरांत उसमें निर्गुण तत्त्व की मात्रा बढ़ती है और नवरात्रि के अंतिम दिन इस निर्गुण तत्त्व की मात्रा सर्वाधिक होती है । निर्गुण स्तर की शक्ति के साथ सूक्ष्म स्तर पर युद्ध करने के लिए छठे एवं सातवें पाताल की बलवान आसुरी शक्तियों को अर्थात मांत्रिकों को इस युद्ध में प्रत्यक्ष सहभागी होना पड़ता है । उस समय ये शक्तियां उनके पूरे सामर्थ्य के साथ युद्ध करती हैं ।

6. श्री दुर्गा देवी का वचन

नवरात्रि की कालावधि में महाबलशाली दैत्यों का वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओं ने उनकी स्तुति की । उस समय देवी मां ने सर्व देवताओं एवं मानवों को अभय का आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।
– मार्कंडेयपुराण 91.51

इसका अर्थ है, जब-जब दानवों द्वारा जगत को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओं का नाश करूंगी ।

इस श्लोक के अनुसार जगत में जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को अर्थात साधकों को कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरों का नाश करती हैं ।

8. नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए

`असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासिता में लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवी वृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुर की माया को पहचानकर, उसके आसुरी बंधनों से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषि मुनियों ने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमों से देवी मां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशति के एक श्लोक में कहा गया है,

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।।
– श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11.12

अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीड़ा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी!, आपको मेरा नमस्कार है । देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवी तत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनायी जाती है ।

नवरात्रि के नौ दिनों में घट स्थापना के उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमी का विशेष महत्त्व है । पंचमी के दिन देवी के नौ रूपों में से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुर सुंदरी का व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियों पर चंडीहोम करते हैं । नवमी पर चंडीहोम के साथ बलि समर्पण करते हैं ।

संदर्भ – सनातन धर्म के ग्रंथ, ‘त्यौहार मनाने की उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजन से संबंधित कृत्यों का शास्त्र‘ एवं अन्य ग्रंथ।

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