Sunday, November 11, 2018

जानिए छठ पर्व क्यों मनाते हैं, क्या लाभ होता है, कैसे करते हैं छठ पूजा?

11 नवम्बर 2018
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🚩हमारे देश की असंख्य विशेषताएं हैं । उनमें से एक है, ‘पर्व’ । यहां प्रतिदिन, प्रतिमास कोई-न-कोई पर्व अवश्य ही मनाया जाता है । इसके लिए विशेषतः ‘कार्तिकमास’ सबसे अधिक प्रसिद्ध है । हमारी परंपराओं की जडें बहुत गहरी हैं, क्योंकि उन सभी का मूल स्त्रोत पुराणों में एवं प्राचीन धर्मग्रंथो में, हमारे ऋषि-मुनियों के उपदेश में मिलता है । यथा- ‘सूर्यषष्ठी’ अर्थात् छठ महोत्सव । इस व्रत में सर्वतोभावेन भगवान् सूर्यदेव की पूजा की जाती है । जिन्हें आरोग्यका रक्षक माना जाता है । ‘आरोग्यं भास्करादिच्छेत’ यह वचन प्रसिद्ध है । इसे आज का विज्ञान भी मान्यता देता है । इससे हमें यह ज्ञात होता है कि, हमारे ऋषि-मुनि कितने उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे ।
🚩आइए, इस पावन पर्व पर भगवान् सूर्यदेव के साथ-साथ हमारे पूर्वज एवं उन ऋषि -मुनियों के श्रीचरणों में कृतज्ञता पूर्वक शरणागत भाव से कोटि-कोटि नमन करते हुए प्रार्थना करें कि, उन्होंने अपने जीवन में अनगिणत प्रयोग करके, जो सत्य एवं सर्वोत्तम ज्ञान हमें दिया है, उनके बताए मार्ग पर चलकर हमें अपने जीवन को सार्थक करने एवं अन्यों को भी इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का बल वे हमें प्रदान करें । छठपर्व बिहार एवं झारखंड में सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान के रूप में जाना जाता है । इस अनुष्ठान को वर्ष में दो बार-चैत्र तथा कार्तिक मास में संपन्न किया जाता है । दोनों ही मासों में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि को सायंकाल अस्ताचलगामी सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पण करते हैं और सप्तमी तिथि को प्रातःकाल उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पण किया जाता है । छठपर्व का सबसे अधिक महत्त्व छठ पूजा की पवित्रता में है ।
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🚩छठ पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो षष्ठी तिथि (छठ) को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है, इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें (Ultra Violet Rays) पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।
🚩पर्व पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा सम्भव है। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है। सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैगनी किरण भी चंद्रमा और पृथ्वी पर आती हैं। सूर्य का प्रकाश जब पृथ्वी पर पहुँचता है, तो पहले वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे आयन मंडल मिलता है। पराबैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्त्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुँच पाता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है। अत: सामान्य अवस्था में मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ होता है। छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपरावर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।

🚩इस व्रत में व्रती को चार दिन एवं रात्रि स्वयं को कायिक, वाचिक तथा मानसिक रूप से पवित्र रखना होता है, तभी इसका फल मिलता है उदा. वाक्संयम रखना पडता है । वाक्संयम में सत्य, प्रिय, मधुर, हित, मित एवं मांगल्यवाणी अंतर्भूत होती है । यह चार दिन एवं रात्रि व्रती को केवल साधनारत रहना पड़ता है । वैसे तो यह पर्व विशेष रूप से स्त्रिायों द्वारा ही मनाया जाता है, किंतु पुरुष भी इस पर्व को बडे उत्साह से मनाते हैं । चतुर्थी तिथि को व्रती स्नान करके सात्त्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में ‘नहायखाय’के नामसे जाना जाता है । पंचमी तिथि को पूरे दिन व्रत रखकर संध्या को प्रसाद ग्रहण किया जाता है । इसे ‘खरना’ अथवा ‘लोहंडा’ कहते हैं ।
🚩षष्ठी तिथि के दिन संध्याकाल में नदी अथवा जलाशय के तट पर व्रती महिलाएं एवं पुरुष सूर्यास्त के समय अनेक प्रकार के पकवान एवं उस ऋतु में उपलब्ध को बांस के सूप में सजाकर सूर्य को दोनों हाथों से अर्घ्य अर्पित करते हैं । सप्तमी तिथि को प्रातः उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के उपरांत प्रसाद ग्रहण किया जाता है । इसी दिन इस व्रत की समाप्ति भी होती है और व्रती भोजन करते हैं । किसी भी व्रत, पर्व, त्यौहार तथा उत्सव मनाने के पीछे कोई-न-कोई कारण अवश्य ही रहता है । छठपर्व मनाने के पीछे भी अनेकानेक पौराणिक तथा लोककथाएं हैं साथ में एक लंबा इतिहास भी है । भारत में सूर्योपासना की परंपरा वैदिककाल से ही रही है ।
🚩वैदिक साहित्य में सूर्य को सर्वाधिक प्रत्यक्ष देव माना गया है । संध्योपासनारूप नित्य अवश्यकरणीय कर्म में मुख्यरूप से भगवान् सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है । महाभारत में भी सूर्योपासना का सविस्तार वर्णन मिलता है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृतिदेवी का छठा अंश होने के कारण इस देवीका नाम ‘षष्ठी’देवी भी है । स्कंदपुराण के अनुसार कार्तिक स्वामी का (स्कंद) पालन-पोषन छह कृत्तिकाओं ने मिलकर किया था, इस कारण यह छह कृत्तिकाएं अपने शिशु की रक्षा करें इस भाव से उन सभी का एकत्रित पूजन किया जाता है ।
🚩एक कारण के अनुसार सुकन्या-च्यवन ऋषि की कथा कही जाती है । एक कथानुसार राजा प्रियव्रत की कथा कही जाती है, एक अन्य कथा अनुसार मगधसम्राट जरासंध के किसी पूर्वज राजा को कुष्ठरोग हो गया था । उन्हें कुष्ठरोग से मुक्त करने के लिए शाकलद्वीपी ब्राह्मण मगध में बुलाए गए तथा सूर्योपासना के माध्यम से उनके कुष्ठरोग को दूर करने में वे सफल हुए । सूर्य की उपासना से कुष्ठ-जैसे कठिनतम रोग दूर होते देख मगध के नागरिक अत्यंत प्रभावित हुए और तब से वे भी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक इस व्रत को करने लगे ।
🚩यह कहा जाता है कि, ‘मग’ लोग सूर्यउपासक थे । सूर्य की रश्मियों से चिकित्सा करने में वे बहुत ही निष्णात (प्रवीण) थे । उनके द्वारा राजा को कुष्ठरोग से मुक्ति देने से राजा ने उन्हें अपने राज्य में बसने को कहा । ‘मग’ ब्राह्मणोंसे आवृत्त होनेके कारण यह क्षेत्र ‘मगध’ कहलाया । तभी से पूरी निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति तथा नियमपूर्वक चार दिवसीय सूर्योपासना के रूप में छठपर्व की परंपरा प्रचलित हुई एवं उत्तरोत्तर समृद्ध ही होती गई ।
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Saturday, November 10, 2018

बर्बर टीपू सुलतान का घृणित, क्रूर इतिहास पढ़कर आप भी कांप जाएंगे....

10 नवम्बर 2018   

🚩गिरीश कर्नाड द्वारा टीपू की तुलना शिवाजी से करना या संजय खान द्वारा टीपू का उत्सव मनाने की मांग करना केवल गलतफहमी नहीं है । कर्नाड उसी क्षेत्र से आते हैं, जहां किसी समय टीपू का शासन रहा था ।

🚩इतिहास की दृष्टि से यह कल की बात है - इतना आसन्न इतिहास कि असंख्य लोगों को प्राथमिक, सीधे स्रोतों से टीपू काल की सच्चाइयां मालूम है । इसके अलावा देश-विदेश के अनेक प्रत्यक्षदर्शी अधिकारियों, लेखकों और दस्तावेजों के विवरण बड़े-बड़े इतिहासकारों द्वारा उद्धृत, प्रकाशित हैं । स्वयं टीपू के लिखे पत्र उपलब्ध हैं जिनसे उस के कार्य, विचार और लक्ष्यों की सीधी जानकारी मिलती है ।
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🚩उदाहरण के लिए, बदरुज्जमा खान को 19 जनवरी 1790 को लिखे टीपू के पत्र में लिखा है, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल ही में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया. मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ (त्रावनकोर के राजा, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे) के खिलाफ जल्द हमला बोलूंगा, चूंकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूं, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टनम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है ।’

🚩दक्षिण भारत के असंख्य लोगों से यह बात छिपी नहीं है कि टीपू का शासन हिन्दू जनता के विनाश और इस्लाम के प्रसार के अलावा कुछ न था यहां तक कि अंग्रेजों से उसके द्वारा किए युद्ध अपना राज और अस्तित्व बचाने के लिए थे । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने फ्रांस को यहां आक्रमण करने का न्यौता दिया तथा भारतीय जनता को रौंद डाला ।

🚩टीपू ने केवल फ्रांस ही नहीं, ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था । अत: अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना दुष्टता, धूर्तता या घोर अज्ञान है । 

🚩हिन्दू जनता पर टीपू की अवर्णनीय क्रूरता के विवरण असंख्य स्रोतों से प्रमाणित हैं । पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के अपने प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं । उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोएज टू ईस्ट इंडीज’ पहली बार सन् 1800 में ही प्रकाशित हुई थी । अभी भी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी प्रति उपलब्ध है । 

🚩टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त सैनिक अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे । कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फांसी पर लटका दिया गया । पहले स्त्रियों को लटकाया गया तथा उनके गले से उनके बच्चे बांध दिए गए थे । उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नंगे शरीर हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाता रहा जब तक उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए ।  मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया ।’

🚩भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार सरदार के. एम. पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है. सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 को लिखे पत्र में टीपू के शब्द हैं, ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए. महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं. उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है. उसी इरादे से यह मेरा जिहाद है.’

🚩मेजर अलेक्स डिरोम ने टीपू के खिलाफ मैसूर की लड़ाई में स्वयं हिस्सा लिया था. उन्होंने लंदन में 1793 में ही अपनी पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वॉर’ प्रकाशित की. उस में टीपू की शाही मुहर का भी विवरण है, जिस में वह अपने को ‘सच्चे मजहब का संदेशवाहक’ और ‘सच्चाई का हुक्म लाने वाला’ घोषित करता था.

🚩ऐसे प्रामाणिक विवरणों की संख्या अंतहीन है. टीपू के समय से ही पर्याप्त लिखित सामग्री मौजूद है, जो दिखाती है कि लड़कपन से टीपू का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना ही रहा था.

🚩सन् 1802 में लिखित मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ में इस का विस्तार से विवरण है. इस के अनुसार, टीपू ने ही श्रीरंगपट्टनम की जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) उसी जगह पहले स्थित एक शिव मंदिर को तोड़कर बनवायी थी.

🚩उस ने अपने कब्जे में आयी सभी जगहों के नाम बदल कर भी उन का इस्लामीकरण कर दिया था. जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगुल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुल्तानपटनम आदि. टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया.

🚩'केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के ख्याति-प्राप्त इतिहासकार सैयद पी़ ए़ मुहम्मद के अनुसार, केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है.

🚩इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है. मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था. तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है.’

🚩उक्त पुस्तकों के अलावा विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टिड लेटर्स ऑफ़ टीपू सुल्तान’ (1811), मैसूर में जन्मे ब्रिटिश इतिहासकार और शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ़ आई़ एम़ मुथन्ना की ‘टीपू सुल्तान एक्सरेड’(1980) आदि अनगिनत प्रामाणिक पुस्तकें हैं ।

🚩संक्षेप में पूरी जानकारी के लिए बॉम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘Tipu Sultan: Villain or Hero?' (वॉयस ऑफ़ इंडिया, दिल्ली, 1993) देखी जा सकती है । सभी के विवरण पढ़कर कोई संदेह नहीं रहता कि यदि एक सौ जनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा ।  यह तो केवल कत्लेआम की बात हुई ।

🚩केरल और कर्नाटक में मुस्लिम आबादी की वर्तमान संख्या का सब से बड़ा मूल कारण टीपू था । हिन्दुओं के समक्ष उस का दिया हुआ कुख्यात विकल्प था, ‘तलवार या टोपी?’ अर्थात, ‘इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, फिर गौमांस खाओ, वरना तलवार की भेंट चढ़ो!’ टीपू के इस कौल, ‘स्वॉर्ड ऑर कैप’ का उल्लेख कई किताबों में मिलता है । बहरहाल, उसी टीपू को फिल्म अभिनेता संजय खान ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया (18 नवंबर 2015) को दिए साक्षात्कार में ‘देशभक्त’ बताया । साथ ही, उस के द्वारा हिन्दुओं का कत्ल करने, उनका उत्पीड़न, कन्वर्जन कराने आदि को ‘मिथ’ यानी कोरी बातें करार दिया है ।

🚩संजय खान साफ झूठ बोल रहे हैं । कम से कम उन्हें कोई अज्ञान नहीं है । कारण, जब सन् 1990 में उन्होंने दूरदर्शन पर अपना सीरियल ‘स्वॉर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’ दिखाया था, तो उस पर कड़ी सामाजिक प्रतिक्रिया हुई थी। न्यायालय में मुकदमा भी चला था । मुख्य आपत्ति यही थी कि एक मनगढंत उपन्यास के आधार पर बने उस सीरियल में टीपू के बारे में झूठी बातें बताकर उसे देशभक्त, उदार आदि दिखाया गया था ।

🚩तब, मार्च 1990 में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द वीक’ को दिए एक साक्षात्कार में खान ने स्वीकार किया था कि जिस गिडवाणी लिखित उपन्यास पर आधारित उनका सीरियल था, उसके विवरण ‘इतिहास की दृष्टि से सच नहीं हैं.’ पचीस वर्ष पहले माने गए अपने झूठ को अब संजय खान ने इस नए इंटरव्यू में फिर जोर देकर सच बताया है. इतना ही नहीं, देश में ‘टीपू की छवि खराब करने’, देश में ‘भयंकर असहिष्णुता का वातावरण’ होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने ‘टीपू का जश्न मनाने’ का आह्वान किया!

🚩यह बेशर्मी और धृष्टता क्या बताती है? यही कि हमारे देश में इतिहास का मिथ्याकरण और हिन्दू-विरोधी राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । साथ ही यह भी कि देश का अंग्रेजी मीडिया कट्टर हिन्दू-विद्वेष से ग्रस्त है।  क्योंकि संजय खान से जैसे सवाल पूछे गए, वे सवाल नहीं थे, बल्कि उन की जैसे आरती उतारी गई थी!

🚩पिछले विवाद का संदर्भ देने के बाद भी तथ्यों पर एक भी प्रश्न ही नहीं था ।  सब कुछ केवल केंद्र सरकार, हिन्दू जनता को लांछित करने और उस पर ‘टीपू की महानता और जय-जयकार’ थोपने की जिद पर केंद्रित था।  इस अंग्रेजी अखबार की ऐसी हिन्दू-द्वेषी बौद्धिक नीति कम से कम पिछले तीन दशक से स्थापित है । दूसरे भी अधिक पीछे नहीं हैं ।

🚩इतिहास का यह घोर मिथ्याकरण ही, हमारे देश में सेकुलरवाद, उदारवाद के रूप में बौद्धिक रूप से प्रतिष्ठित है । इससे तनिक भी असहमति रखने को ही ‘असहिष्णुता’ बताकर सीधे-सीधे संपूर्ण हिन्दू जनता को अपमानित किया जाता है ।

🚩यह स्वतंत्र भारत में आधिकारिक नेहरूवादी नीति के रूप में इतने गहरे जमाया जा चुका है कि दूसरे राजनीतिक दल तक इस से बुरी तरह भ्रमित हैं । यह उसी भ्रम का ही नतीजा है कि नई सरकार के ‘विकास’ के नारे की खिल्ली उड़ाकर उसे दुनिया भर में ‘हिंसक’, ‘असहिष्णु’ के रूप में बदनाम करने की कोशिशें की गर्इं ।

🚩हमारे देश के कर्णधारों ने इस की अनदेखी की है कि इतिहास के प्रति गलत दृष्टिकोण से देश के किशोरों, युवाओं के मानस पर दुष्प्रभाव पड़ता रहा है. इसी से राजनीति में हिन्दू-विरोधी तत्व मजबूत रहे हैं. उन के प्रतिवाद-स्वरूप कुछ कहा जाए, तो उसे हिन्दू ‘असहिष्णुता’ बता कर उलटे दु:खी समूह को ही पुन: चोट पहुंचाई जाती है. इन सब को विशेष रंगत देकर जो दुष्प्रचार होता है, उस से भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि भी बिगड़ती है.

बल्कि, जैसा तसलीमा नसरीन ने पहचाना, वही इस संगठित पुरस्कार-लौटाऊ प्रदर्शन का एक उद्देश्य ही था. अतएव वैचारिक लड़ाई की उपेक्षा केवल भाजपा के लिए ही नहीं, देश-हित के लिए भी ठीक नहीं है.

🚩आरंभिक इस्लामी विभूतियों से लेकर टीपू, और इकबाल-जिन्ना से लेकर ‘लादेन जी’ तक के बारे में गलतफहमी फैलाने वालों में अज्ञानियों से लेकर राजनीतिबाजों तक, हर तरह के लोग शामिल हैं. वे इसलिए भी कुछ भी अनाप-शनाप बोलते रहते हैं, क्योंकि उन्हें उन का अज्ञान दिखाया नहीं जाता. मत-वैभिन्य के नाम पर आदर दे दिया जाता है. यह इतने लंबे समय से चल रहा है कि गलत को सही, और सही को ही गलत मान लिया गया है.

टीपू के घृणित, क्रूर इतिहास को बदलकर ‘सामासिक संस्कृति’ का प्रतीक या ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी योद्धा’ का खिताब दे देना एक राजनीतिक कारस्तानी है.

🚩14 अक्टूबर 1930 के ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में एक विस्तृत समीक्षा छपी थी. उस के विशेष संवाददाता ने व्यंग्य-पूर्वक लिखा था कि ‘यंग इंडिया’ ने टीपू की ऐसी विरुदावली गढ़ी, मानो वह कोई कांग्रेस कार्यकर्ता हो. जबकि टीपू की कुख्याति हिन्दुओं के घोर शत्रु के रूप में है, जिसने कुर्ग में एक ही बार में 70,000 हिन्दुओं को बलात् इस्लाम में कन्वर्ट किया और उन्हें गोमांस खाने पर मजबूर किया । 

🚩मैसूर नगर और उस के राजमहल का विध्वंस किया. महल पुस्तकालय में संग्रहित बहुमूल्य पांडुलिपियों को जलाकर उस से अपने घोड़ों के लिए चने उबलवाए. बड़े पैमाने पर मंदिरों और चर्चों को तोड़कर नष्ट किया.

इसीलिए, सन् 1930 वाले ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ संवाददाता के अनुसार, यंग इंडिया ने अपनी ‘राष्ट्र-निर्माण’ वाली खामख्याली में टीपू की एक झूठी छवि गढ़ने की कोशिश की है.

🚩इस प्रसंग से समझा जा सकता है कि किस तरह राजनीतिक उद्देश्यों से इतिहास का मिथ्याकरण करने की कोशिशें लगभग सौ साल से चल रही हैं.

ध्यान दें, 'यंग इंडिया' ने यह तब किया जब इतिहासकारों के प्रामाणिक लेखन के अलावा जन-गण की आम स्मृति में टीपू की वास्तविकता और भी हालिया तथा जीवन्त थी! मगर झूठ की भित्ति पर सद्भाव नहीं बनाया जा सकता.

🚩ऐसी कोशिशों ने शिक्षा और ज्ञान-विमर्श में सस्ती भावुकता और छिछले तर्कों को ऊंचाई प्रदान कर हमारे बौद्धिक स्तर और चरित्र, दोनों को गिराया है. इसीलिए, तब से लेकर अभी गिरीश कर्नाड तक को जानकारों द्वारा तीखी प्रतिक्रियाएं भी झेलनी पड़ीं.

मगर, दु:ख की बात है कि फिर भी उन्होंने और उनके अज्ञानी समर्थकों ने नहीं समझा कि टीपू को सम्मानित करने की मांग कर-करके उन्होंने सदैव हिन्दुओं के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया.

🚩टीपू के हाथों मारे गए लाखों मृतकों की आत्माओं का अपमान तो अलग रहा! टीपू के बारे में राजनीतिक दुष्प्रचार ही चलाते रहे और इसी को हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की जरूरत बताते रहे हैं.

किन्तु हमें समझना होगा कि इतिहास का मिथ्याकरण या उस के प्रति अज्ञान सामाजिक सद्भाव के बदले वैमनस्य ही बढ़ाता है. वह एक कट्टर, आततायी मजहबी साम्राज्यवाद की ही मदद करता है. उस का फल कभी अच्छा नहीं हो सकता. पर कई दशकों से इस का हिसाब किसी ने नहीं मांगा, इसलिए वे भ्रमवश या धृष्टतापूर्वक वही लकीर पीटते रहते हैं.

🚩इतिहास के प्रति अज्ञान और हमारी संस्कृति के प्रति उदासीनता तथा उस के जबरन ‘सेक्यूलर’ इस्लामीकरण से देश को बड़ी हानि उठानी पड़ी है. निरपवाद रूप से सभी वैचारिक हमलों का निशाना केवल हिन्दू समाज रहता है. वह अपने धर्म, समाज की उपेक्षा-अपमान बेबस देखता है. यह देश का ही अपमान है, जिसे समझा जाना चाहिए.

नेहरूवादी प्रभाव में यह लंबे समय से बेरोक-टोक चल रहा है. इसीलिए, जो बड़े बुद्धिजीवी और अकादमिक ‘एक्टिविस्ट’ लोकसभा चुनाव से पहले मोदी पर गोले बरसा रहे थे, वे पुन: संगठित, सक्रिय हो गए हैं. मोदी-विजय से उपजी निराशा से उबरकर अब वे किसी न किसी बहाने ठीक वही दुहरा रहे हैं, जो विगत कई बरसों से उन का रिकार्ड है.

🚩वैचारिक-सांस्कृतिक लड़ाई स्वभाव से ही अविराम होती है। साथ ही, इस में पहले प्रहार करने वाले को उसी तरह बढ़त मिलती है, जैसे खेल में टॉस जीतने वाला, लड़ाई का स्वरूप तथा दिशा तय करने का अवसर पाता है । अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने भी इसे नहीं समझा. उन्हें और देश को सदैव उस का खामियाजा भुगतना पड़ा है ।
लेखक : डॉ. शंकर शरण ("पाञ्चजन्य" 06 दिसंबर 2015 के अंक से साभार)

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Friday, November 9, 2018

ईसाई पादरी ने 10 साल की बच्ची से किया रेप, मीडिया ने साधी चुप्पी..

9 नवम्बर 2018   

🚩कैथलिक चर्च की दया, शांति और कल्याण की असलियत, दुनिया के सामने उजागर हो ही गयी है । मानवता और कल्याण के नाम पर हो रही क्रूरता की पोल खुल चुकी है । चर्च कुकर्मों की पाठशाला व सेक्स स्कैंडल का अड्डा बन गया है, लेकिन सेक्युलर, मीडिया की नजर इनपर नहीं जाती है इनकी नजर गिद्ध की तरह है, गिद्ध कितना भी ऊंचा उड़े लेकिन उसकी नजर केवल नीचे पड़े मांस पर होती है वैसे ही हिन्दू धर्म और साधु संतों की महानता कितनी ही हो पर किंतु उसपर इन गिद्ध रुपी मीडिया की नजर नहीं जाती है और ना ही ईसाई पादरी या मौलवी के दुष्कर्मों पर जाती है उनकी नजर केवल हिन्दू धर्म के साधु संतों के अच्छे कार्य और हिन्दू संस्कृति को खत्म करने की ही नजर रहती है ।
Christian pastor raped by 10-year-old girl; simple silence in media

🚩अभी हाल ही में नगालैंड के चर्च से एक 60 साल के पादरी को गिरफ्तार किया गया है। पादरी पर आरोप है कि उसने असम की दस वर्षीय बच्ची के साथ रेप किया, लेकिन मीडिया में कहीं भी खबर नहीं आ रही है, किसी ने लिखा तो थोड़ा बहुत लिख दिया बाकी ज्यादा हाइलाइट नहीं हो रही हैं, लेकिन यदि किसी साधु-संत पर षड्यंत्र के तहत झूठा आरोप भी लग जाए तो भी दिनभर खबरें चलती रहती हैं ।

🚩आपको बता दें कि नगालैंड के चर्च से एक 60 साल के पादरी को गिरफ्तार किया गया है । पादरी पर आरोप है कि उसने असम की दस वर्षीय बच्ची के साथ रेप किया । इतना ही नहीं उसने एक 35 वर्षीय दूसरे आदमी के साथ मिलकर इस रेप का वीडियो बनाया और उसे सोशल मीडिया में अपलोड कर दिया ।
पुलिस ने बताया कि पादरी का नाम चंद्र कुमार प्रधान है । आरोप है कि 29 अक्टूबर को उसने एक दस साल की बच्ची को अपने घर के पास बगीचे में बुलाया । बगीचे में सूनसान जगह में उसने बच्ची के साथ रेप किया और इसका वीडियो शूट करवाया। वह घटना के बाद से लापता था।

🚩पुलिस अधिकारी श्वेतांक मिश्रा ने बताया कि पादरी ने बच्ची को धमकी भी दी थी । डर की वजह से उसने अपने घर में कुछ नहीं बताया। हालांकि जब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो उसने 31 अक्टूबर को अपने माता-पिता को पूरी घटना बताई । उन लोगों ने थाने में जाकर पादरी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई ।

🚩श्वेतांक ने बताया कि पादरी अपने घर से भागा हुआ था। वह पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए बार-बार अपनी लोकेशन भी बदल रहा था । हालांकि पुलिस ने उसे नगालैंड के कोहिमा में एक होटल से पकड़ लिया । पुलिस ने बताया कि पादरी के ऊपर आईपीसी की धाराओं के साथ ही आईटी ऐक्ट और पॉक्सो ऐक्ट की धाराओं में भी केस दर्ज किया गया है।

🚩कन्नूर (केरल) के कैथोलिक चर्च की एक  नन सिस्टर मैरी चांडी  ने पादरियों और ननों का चर्च और उनके शिक्षण संस्थानों में व्याप्त व्यभिचार का जिक्र अपनी आत्मकथा ‘ननमा निरंजवले स्वस्ति’ में किया है कि ‘चर्च के भीतर की जिन्दगी आध्यात्मिकता के बजाय वासना से भरी थी । एक पादरी ने मेरे साथ बलात्कार की कोशिश की थी । मैंने उस पर स्टूल चलाकर इज्जत बचायी थी ।’ यहाँ गर्भ में ही बच्चों को मार देने की प्रवृत्ति होती है । सान डियेगो चर्च के अधिकारियों ने पादरियों के द्वारा किये गये बलात्कार, यौन-शोषण आदि के 140 से अधिक अपराधों के मामलों को निपटाने के लिए 9.5 करोड़ डॉलर चुकाने का ऑफर किया था ।

🚩चर्च की आड़ में चल रहे यौन शोषण के हजारों मामले सामने आ चुके हैं । सन् 1950 से 2002 के काल में पादरियों के द्वारा किये गये यौन-शोषण के 10,667अपराध दर्ज किये गये । उनमें से 3300 की जाँच पूरी होने के पहले ही वे मर गये । बाकी 7700 में से 6700 पादरियों को अपराधी घोषित किया गया । सन् 2002 में आयरलैंड के पादरियों के यौन-शोषण के अपराधों के कारण 12 करोड़ 80 लाख डॉलर का दंड चुकाना पड़ा । मई 2009 में प्रकाशित रायन रिपोर्ट के अनुसार 30,000 बच्चों को इन संस्थाओं में ईसाई ननों और पादरियों द्वारा प्रताड़ित और उनका शोषण किया जाता रहा ।

🚩इन सब आंकड़ों को देखकर भी मीडिया वालों की नजर उनपर नहीं जाती है लेकिन पवित्र हिन्दू साधु-संतों के खिलाफ झूठी और अनर्गल बातें करते हैं ।

🚩क्योंकि मीडिया को अधिकतर फंडिंग विदेशों से होती है और उसमें भी खासकर अधिकतर पैसे वेटिकन सिटी के लगे हैं इसलिए वे केवल हिन्दू संस्कृति एवं उनके आधर स्तंभ साधु-संतों को टारगेट कर रहे हैं, जिससे हिन्दू धर्म की बदनामी करके आसानी से हिंदुओं को धर्मांतरित कर सकें क्योंकि उनके धर्म में तो कोई अच्छाई या महानता है नहीं, जिससे वो अपने धर्म को हिन्दू धर्म से ऊंचा साबित कर सकें इसलिए वे हिंदुत्व को बदनाम करके, हिन्दू धर्म को मिटाकर अपने धर्म को बढ़ावा देना चाहते हैं ।

🚩अतः कोई भी भारतवासी मीडिया की एकतरफा खबरों पर भरोसा करके अपने ही धर्म एवं धर्मगुरुओं की निंदा न करें, अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग करें और षड्यंत्र को समझकर उसका विरोध करें ।

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