Sunday, October 25, 2020

विदेशी महिला की हमले में कटी नाक को महर्षि सुश्रुत के शल्य चिकित्सा किया ठीक

25 अक्टूबर


कॉन्वेंट स्कूल में पढ़े हुए बच्चें भले अपनी प्राचीन संस्कृति को न माने पर आज भी ऋषि-मुनियों द्वारा बताई गई युक्तियां काम कर रही हैं । 




शल्य चिकित्सक महर्षि सुश्रुत की लिखी सुश्रुत संहिता आज 2500 वर्षों बाद भी चिकित्सा क्षेत्र में मार्गदर्शक बनी हुई है । यह है भारत का वह सनातनी ज्ञान जिसके कारण भारत विश्वगुरु कहलाता था ।

चार सालों से एक विदेशी महिला की नाक की सर्जरी अटकी हुई थी । कोई भी दवाई काम में नहीं आ रही थी। लाख कोशिशों के बाद वह इलाज के लिए भारत आई। डॉक्टरों ने यहां शल्य चिकित्सक महर्षि सुश्रुत के तकरीबन ढाई हजार साल पुराने तरीके अपनाए और उसकी सफल सर्जरी कर नई नाक तैयार की । डॉक्टरों ने महिला के गाल की खाल की मदद से यह नई नाक बनाई ।

एक न्यूज एजेंसी के अनुसार, शम्सा खान (24) मूलरूप से अफगानिस्तान की रहनेवाली हैं । आतंकी हमले में चार साल पहले उन्हें गोली लग गई थी । वह उस हमले में बाल-बाल बचीं, पर कुछ जख्मों ने उनकी नाक का हुलिया बुरी तरह बिगाड दिया था। वह इसके चलते ठीक से सांस भी नहीं ले पाती थीं। यहां तक कि उनकी सूंघने की क्षमता भी चली गई थी ।

इलाज की आस में उन्होंने अफगानिस्तान में कई डॉक्टरों के चक्कर लगाए, परंतु उनके हाथ केवल निराशा ही आई । उन्होंने वहां पर सर्जरी भी कराई, परंतु वह सफल न हो पाई । ऐसे में उन्होंने बेहतर इलाज के लिए भारत का रुख किया । राजधानी नई देहली स्थित केएएस मेडिकल सेंटर एंड मेडस्पा में उन्हें भर्ती कराया गया । प्लास्टिक सर्जन अजय कश्यप ने एजेंसी से कहा, “यह जटिल मामला था । आधुनिक तरीकों से बात नहीं बनी, तो हमने शल्य चिकित्सक महर्षि सुश्रुत की तकनीक से नाक बनाने के लिए गाल से खाल ली ।"

उधर, इलाज के बाद शम्सा खास खुश हैं । वह बोलीं, “हमारे यहां गोली चलना व हमले होना आम है। उनमें कुछ मरते हैं तो कुछ बच जाते हैं, जबकि कुछ हालात के कारण मानसिक व शारीरिक ट्रॉमा का शिकार हो बैठते हैं । अंग बेकार हो जाए, जो जिंदगी भयावह हो जाती है। पर अब मुझे खुशी है कि सामान्य जीवन जी सकूंगी ।” स्त्रोत : जनसत्ता

कौन थे सुश्रुत ?

प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे । उन्हें शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है ।

शल्य चिकित्सा (Surgery) के पितामह और 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म काशी में हुआ था । इन्होंने धन्वन्तरि से शिक्षा प्राप्त की । सुश्रुत संहिता को भारतीय चिकित्सा पद्धति में विशेष स्थान प्राप्त है ।

सुश्रुत संहिता में सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा है । 'विश्वामित्र' से कौन से विश्वामित्र से अभिप्राय है, यह स्पष्ट नहीं । सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था । काशीपति दिवोदास का समय ईसा पूर्व की दूसरी या तीसरी शती संभावित है । सुश्रुत के सहपाठी औपधेनव, वैतरणी आदि अनेक छात्र थे । सुश्रुत का नाम नावनी तक में भी आता है ।

सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं । यह सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। सुश्रुत के उत्तरतंत्र को दूसरे का बनाया मानकर कुछ लोग प्रथम भाग को सुश्रुत के नाम से कहते हैं; जो विचारणीय है। वास्तव में सुश्रुत संहिता एक ही व्यक्ति की रचना है ।

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे । ये उपकरण शल्य क्रिया की जटिलता को देखते हुए खोजे गए थे । इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयां, चिमटियां आदि हैं । सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की । सुश्रुत ने कॉस्मेटिक सर्जरी में विशेष निपुणता हासिल कर ली थी । सुश्रुत नेत्र शल्य चिकित्सा भी करते थे । सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोड़ने में विशेषज्ञता प्राप्त थी ।

शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे विशेष औषधियां देते थे । इसलिए सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी । सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे । उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताये और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया । प्रारंभिक अवस्था में शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे । मानव शारीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव के ऊपर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे । सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा में अद्भुत कौशल अर्जित किया तथा इसका ज्ञान अन्य लोगों को कराया । इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी ।

महर्षि सुश्रुत को विश्व का पहला शल्य चिकित्सक (सर्जन) माना जाता है। 2500 साल पहले सुझाए उनके सर्जरी के तरीके आज भी सबसे सटीक माने जाते हैं । 184 अध्यायवाली सुश्रुत संहिता में आठ तरीके की सर्जरी और 1120 प्रकार के रोगों के बारे में बताया गया है। वह, चरक और धन्वंतरि जैसे चिकित्सकों जैसे ही मशहूर रहे हैं म

ये है भारत देश की ऋषि-मुनियों की महिमा लेकिन हम उनके लिखे हुए शास्त्र की बाते भूलते जा रहे है इसलिए दुःखी, परेशान, बेचैन, बीमार, अशांत रहते हैं, अगर ऋषि-मुनियों द्वारा बताई गई बातों अनुसार कार्य किया जाए तो हर व्यक्ति सुखी, स्वस्थ्य, सम्मानित जीवन जी सकता है ।

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Saturday, October 24, 2020

इतिहास : महिषासुर कौन था, मां दुर्गा ने महिषासुर का वध क्यों किया था?

24 अक्टूबर 2020


 वामपंथी और नकली इतिहासकारों ने हमेशा भारत के सही इतिहास को तोड मरोड़ करके गलत इतिहास बताया है। उनका मुख्य उद्देश्य यह है कि भारतवासी अपनी असली पहचान भूल जाए, अपनी महान संस्कृति, परमपराओं की जगह पाश्चात्य संस्कृति की तरफ मुड़ जाए और दूसरा उनका उद्देश्य यह है कि "फुट डालो और राज करो" इसलिए ये लोग हिंदुओं को गलत इतिहास बताकर जातिवादी में बांट रहे है और कुछ दलित व आदिवाशी भोले भाले हिंदू उनके बहकावें में आ भी जाते हैं।




भारत में कुछ आदिवासियों को वामपंथियों ने इतिहास गलत बताया इसलिए कुछ आदिवासी महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी वामपंथियों द्वारा महिषासुर का महिमा मंडन किया जा रहा है उसका शहादत दिवस मनाते हैं इसलिए आपको यह जानना जरूरी है कि महिषासुर कौन था और दुर्गा माता ने उसका वध क्यों किया था।

महिषासुर का जन्म:

महिषासुर एक असुर (राक्षस) था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से असुर महिषासुर का जन्म हुआ। इस वजह से महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था।

महिषासुर को मिला था वरदान:

महिषासुर ने सृष्टिकर्ता ब्रम्हा जी की आराधना की थी जिससे ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को सताने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और सभी देवताओं को वहां से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुंचे। सारे देवताओं ने फिर मिलकर उसे परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गए।

महिषासुर मर्दिनी:

देवता सर्वशक्तिमान होते हैं, लेकिन उनकी शक्ति को समय-समय पर दानवों ने चुनौती दी है। कथा के अनुसार, दैत्यराज महिषासुर ने तो देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार भी कर लिया था। उसने इतना अत्याचार फैलाया कि देवी भगवती को जन्म लेना पड़ा। उनका यह रूप 'महिषासुर मर्दिनी' कहलाया।

देवताओं का तेज:

देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा था। भगवान विष्णु और भगवान शिव अत्यधिक क्रोध से भर गए। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मुंह से क्रोध के कारण एक महान तेज प्रकट हुआ। अन्य देवताओं के शरीर से भी एक तेजोमय शक्ति मिलकर उस तेज से एकाकार हो गई। यह तेजोमय शक्ति एक पहाड़ के समान थी। उसकी ज्वालायें दसों-दिशाओं में व्याप्त होने लगीं। यह तेजपुंज सभी देवताओं के शरीर से प्रकट होने के कारण एक अलग ही स्वरूप लिए हुए था।

महिषासुर के अंत के लिए हुई उत्पत्ति:

इन देवी की उत्पत्ति महिषासुर के अंत के लिए हुई थी, इसलिए इन्हें 'महिषासुर मर्दिनी' कहा गया। समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर पीड़ित देवताओं की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। भगवान शिव ने त्रिशूल देवी को दिया। भगवान विष्णु ने भी चक्र देवी को प्रदान किया। इसी प्रकार, सभी देवी-देवताओं ने अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र देवी के हाथों में सजा दिये। इंद्र ने अपना वज्र और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा देवी को दिया। सूर्य ने अपने रोम कूपों और किरणों का तेज भरकर ढाल, तलवार और दिव्य सिंह यानि शेर को सवारी के लिए उस देवी को अर्पित कर दिया। विश्वकर्मा ने कई अभेद्य कवच और अस्त्र देकर महिषासुर मर्दिनी को सभी प्रकार के बड़े-छोटे अस्त्रों से शोभित किया।

महिषासुर से युद्ध:

थोड़ी देर बाद महिषासुर ने देखा कि एक विशालकाय रूपवान स्त्री अनेक भुजाओं वालीं और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर शेर पर बैठकर अट्टहास कर रही हैं। महिषासुर की सेना का सेनापति आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। उदग्र नामक महादैत्य भी 60 हजार राक्षसों को लेकर इस युद्ध में कूद पड़ा। महानु नामक दैत्य एक करोड़ सैनिकों के साथ, अशीलोमा दैत्य पांच करोड़ और वास्कल नामक राक्षस 60 लाख सैनिकों के साथ युद्ध में कूद पड़े। सारे देवता इस महायुद्ध को बड़े कौतूहल से देख रहे थे। दानवों के सभी अचूक अस्त्र-शस्त्र देवी के सामने बौने साबित हो रहे थे, लेकिन देवी भगवती अपने शस्त्रों से राक्षसों की सेना को बींधने बनाने लगी।

इस युद्ध में महिषासुर का वध तो हो ही गया, साथ में अनेक अन्य दैत्य भी मारे गए। इन सभी ने तीनों लोकों में आतंक फैला रखा था।  देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और नवमी के दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वाले कुछ वामपंथी व्यभिचारी, दुराचारी, राक्षस  महिषासुर का महिमामंडन करते हैं, उनकी पूजा करते है क्योंकि उनको भी यही करना होता है ये लोग भोले भाले आदिवासियों व दलित हिंदुओं को भी भ्रमित करते हैं जिससे वे अपनी भारतीय हिंदू संस्कृति से दूर हो जाएं और देश एवं धर्म के खिलाफ खड़े हो जाएं, जिससे उनको देश को तोड़ने में आसानी रहे ।

आपने जान लिया कि महिषासुर एक असुर था और आतंक फैलाकर रखा था इसलिए उसका वध करना जरूरी था, लेकिन JNU वाले वामपंथी जिस तरह उसका महिमामंडन कर रहे हैं उससे सावधान रहें और अपनी देश व संस्कृति की महानता को टूटने न दे।

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Friday, October 23, 2020

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मज़हबी उन्माद... सभी हिंदुओं को इसका इतिहास पता होना चाहिये

23 अक्टूबर 2020


पेरिस में एक ईसाई शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी गई। हत्यारा चेचन्या मूल का 18 वर्षीय युवक था जिसे पुलिस ने गोली मारकर दोज़ख पंहुचा दिया। सारा फ्रांस शिक्षक के समर्थन में सड़कों पर उतर आया। कुछ दिनों पहले चार्ली हेब्दों के दफ्तर के समीप कुछ पत्रकारों को चाकू मारकर घायल कर दिया गया था। यह प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा था। फ्रांस की सरकार ने तत्काल कार्यवाही करते हुए इस्लाम के कट्टरपंथी मौलानाओं को देश से निर्वासन और मस्जिदों को बंद करने की कार्यवाही की हैं।




संयोग से जिस दिन उक्त शिक्षक की हत्या हुई उस दिन से ठीक एक वर्ष पहले भारत में कमलेश तिवारी की भी गला काटकर हत्या हुई। भारत के लोग कमलेश तिवारी के लिए न सड़कों पर आये और न ही उनकी हत्या पर देशव्यापी जनाक्रोश देखने को मिला। उसके विपरीत भारत में गौहत्या में शामिल दादरी के अख़लाक़ और अलवर के पहलु खान के लिए अपने आपको सेक्युलर और लिबरल कहने वाला मीडिया, NGO, मनावाधिकार कार्यकर्ता, राजनेता पुरजोर समर्थन में खड़े हो गए। प्रश्न उठता है हम हिन्दू हितों के लिए कब खड़े होंगें। पिछले 1200 वर्षों में हम अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश को खो चुके हैं। कश्मीर, केरल, असम, उत्तर प्रदेश से लेकर देश के 100 से अधिक जिलों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को विधिवत रूप से बसाया गया हैं। राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, गुरु गोविन्द सिंह, वीर शिवाजी, वीर शम्भाजी, वीर हकीकत राय जैसे हमारें कुछ महान पूर्वजों के नाम है जिनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

आधुनिक काल में तलवार का स्थान कलम ने ले लिया। अभिव्यक्ति के नाम पर मुसलमान हिन्दू देवी देवताओं और मान्यताओं पर अनेक आघात करते। जिनके उत्तर हिन्दुओं के वीर शिरोमणि देते थे। अंग्रेजी राज के काल में मुसलमानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए सबसे पहले 1845 ई में हिन्दू धर्म की आलोचना करते हुए रद्दे हनूद (हिन्दू मत का खंडन) नामक किताब लिखी जिसका प्रतिउत्तर चौबे बद्रीदास ने रद्दे मुसलमान (मुस्लिम मत का खंडन) नामक पुस्तक लिख कर दिया। इसके बाद अब्दुल्लाह नामक व्यक्ति ने 1856 ई में हिन्दू देवी-देवताओं की कठोर आलोचना और निंदा करते हुए तोहफतुल-हिन्द (भारत की सौगात) के नाम से उर्दू में प्रकाशित की। पंडित लेखराम जी के अनुसार इस पुस्तक से अनेक अज्ञानी हिन्दू मुसलमान बने। ऐसी विकट स्थिति में मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तोहफतुल-इस्लाम (इस्लाम का उपहार) के नाम से फारसी में दिया। सैय्यद महमूद हुसैन ने इसके खंडन में खिलअत-अल-हनूद नामक पुस्तक छापी। उसके प्रतिउत्तर में मुंशी जी ने पादाशे इस्लाम नामक पुस्तक 1866 में छापी।इसके तीन वर्ष पश्चात मुंशी जी ने एक मुसलमान द्वारा लिखी पुस्तक असूले दीने हिन्दू (हिन्दू धर्म के सिद्धांत) नामक पुस्तक का उत्तर देने के लिए असूले दीने अहमद (इस्लाम के सिद्धांत) के नाम से लिखी।

इस पर मुसलमानों ने अत्यंत अश्लील पुस्तक 'तेगे फकीर बर गर्दने शरीर' (दुष्ट व्यक्तियों की गर्दन पर फकीर की तलवार) और हदिया उल असलाम नामक पुस्तक छापी। इसके जवाब में मुंशी जी ने हमलये हिन्द(1863), समसामे हिन्द और सौलते हिन्द (1868) नामक तीन पुस्तकें मेरठ से छपवायीं। इसके स्वरुप मुसलमानों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और एक मुस्लिम पत्र जामे जमशीद ने 16 मई 1881 के अंक में मुंशी जी के विरुद्ध मुसलमानों को उत्तेजित किया जिसके कारण सरकार ने मुंशी जी के खिलाफ़ वारंट निकाल दिया एवं कचहरी में मुकदमा चलाया गया। यद्यपि मुंशी जी द्वारा वकीलों द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सप्रमाण उत्तर दिया गया मगर फिर भी निचली अदालत ने 500 रुपये जुर्माना किया एवं उनकी पुस्तकों को फड़वा दिया। मुंशी जी ने उपरतली अदालत में अपील की। तत्कालीन आर्य समाचार मेरठ, आर्यदर्पण शाहजहाँपुर आदि में लेख लिखें। भारत सरकार, गवर्नर जनरल शिमला आदि को आवेदनपत्र भेजे। गवर्नर ने मुक़दमे की कार्यवाही शिमला मंगवाई मगर मामला विचाराधीन है कहकर जुर्माने की रकम को घटाकर 100 रुपये कर दिया गया और मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध लिखी गई पुस्तकों को नजरअंदाज कर दिया गया। मामला हाई कोर्ट में गया मगर जुर्माना बहाल रखा गया। अंत में तीव्र आंदोलन होने पर मुंशी जी का जुर्माना भी क्षमा कर दिया गया। स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के पत्रों के माध्यम से मुंशी जी की धन से सहायता करने की अपील भी निकाली थी। मुंशी जी ने मेला चाँदपुर शास्त्रार्थ में स्वामी जी के साथ आर्यसमाज के पक्ष को प्रस्तुत किया था और आर्यसमाज मुरादाबाद के प्रधान पद पर भी रहे थे। स्वामी दयानंद पर इस मुक़दमे के कारण अंग्रेज सरकार की न्यायप्रियता एवं पक्षपात रहित सोच पर अनेक संशय उत्पन्न हो गए। सही पक्ष होते हुए भी मुंशी जी को तंग किया गया, उनकी पुस्तकें नष्ट की गई एवं मुसलमानों की पुस्तकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। स्वामी जी शांत बैठने वालों में से नहीं थे। अपने लंदन में पढ़ रहे अपने शिष्य पंडित श्याम जी कृष्ण को लंदन की पार्लियामेंट में इस मामले को उठाने की सलाह अपने पत्र व्यवहार में दी जिससे की अंग्रेज सरकार द्वारा भारत में सामान्य जनता के विरुद्ध कैसा व्यवहार होता है इससे लंदन निवासी परिचित हो सकें। अंग्रेजों द्वारा पक्षपात करने के कारण स्वामी दयानंद का चिंतन निश्चित रूप से स्वदेशी राजा एवं स्वतंत्रता की ओर पहले से अधिक प्रेरित होना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर चिर काल से सो रही मानव जाति को जगाया। सत्यार्थ प्रकाश आरम्भ के दस समुल्लासों की बजाय अंत के चार समुल्लासों के कारण अधिक चर्चा में रहा है। सत्यार्थ प्रकाश के विपक्ष में इतना अधिक साहित्य लिखा गया कि एक वृहद पुस्तकालय ही बन जाये। इसका मूल कारण स्वामी जी के उद्देश्य को ठीक प्रकार से समझना नहीं था। स्वामी जी का उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं अपितु सत्य का मंडन एवं असत्य का खंडन था और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है। स्वामी जी का कहना था कि मत-मतान्तर के आपसी मतभेद के चलते धर्म का ह्रास हुआ है एवं मानव जाति की व्यापक हानि हुई है और जब तक यह मतभेद नहीं छूटेगा तब तक आनंद नहीं होगा। पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी दयानंद ने रूढ़िवादी एवं असत्य मान्यताओं पर जो कुठाराघात किया वह सैद्धांतिक, पक्षपात रहित एवं तर्कसंगत था जबकि उससे पहले लिखी गई पुस्तकों में प्राय: भद्दी गलियां एवं अश्लील भाषा की भरमार अधिक होती थी। स्वामी जी सामाजिक चेतना के पक्षधर थे।

स्वामी दयानंद के पश्चात पंडित लेखराम द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आर्यमर्यादा का पालन करते हुए वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रकाशित हो रही पुस्तकों का प्रत्युत्तर दिया। पंडित जी द्वारा रचित रिसाला जिहाद के विरुद्ध मुसलमानों ने 1892 में कोर्ट में केस किया था जिसकी पैरवी लाला लाजपत राय जी द्वारा बखूबी की गई थी। अंततः विजय आर्यसमाज की हुई थी। अहमदिया जमात के मिर्जा गुलाम अहमद ने बरहीन अहमदिया नामक पुस्तक चंदा मांग कर छपवाई। पंडित जी ने उसका उत्तर तकजीब ए बरहीन अहमदिया लिखकर दिया। मिर्जा ने सुरमाये चश्मे आर्या (आर्यों की आंख का सुरमा) लिखा जिसका पंडित जी ने उत्तर नुस्खाये खब्ते अहमदिया (अहमदी खब्त का ईलाज) लिख कर दिया। अंत में धोखे से पंडित जी को पेट में छुरा मारकर क़त्ल कर दिया गया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पंडित लेखराम जी का अमर बलिदान हुआ।

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें "१९ वीं सदी का महर्षि" और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में "रंगीला रसूल" के नाम से पुस्तक छाप कर दिया, जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी। यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी। पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी "छपा था। वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे। वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे। मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये, कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे। महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी। १९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिमपरस्त नीति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दुकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चुन्नीलाल जी उसकी ओर लपके। उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली, लाहौर पर पकड़ लिया गया। उसे चौदह वर्ष की सज़ा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया। महाशय जी के सुपुत्र विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया। पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गई और बाद में मुसलमानों द्वारा पूरा जोर लगाने पर भी इल्मदीन को फाँसी की सजा हुई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यह निराला बलिदान था।

लाहौर में आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेता वीर परमानन्द जी को जेठ की दोपहरी में उस समय मार दिया गया जब वह उर्दू सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियोँ को लेने अपनी दुकान पर गए थे। मुसलमानों के लिए सत्यार्थ प्रकाश के १४ वे समुल्लास में कुरान की समीक्षा के उद्देश्य को मजहबी आक्रोश में हिंसा का रास्ता अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण फैसला था।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की पंक्ति में वीर नाथूराम जी का बलिदान स्मरणीय है। वीर नाथूराम का जन्म 1 अप्रैल 1904 को हैदराबाद सिंध प्रान्त में हुआ था। पंजाब में उठे आर्य समाज के क्रांतिकारी आन्दोलन से आप प्रभावित होकर 1927 में आप आर्यसमाज में सदस्य बनकर कार्य करने लगे। उन दिनों इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले हिन्दुओं को अधिक से अधिक धर्म परिवर्तन कर अपने मत में सम्मिलित करने की फिराक में रहते थे। 1931 में अहमदिया (मिर्जाई) मत की अंजूमन ने सिंध में कुछ विज्ञापन निकल कर हिन्दू धर्म और हिन्दू वीरों पर गलत आक्षेप करने शुरू कर दिए। जिसे पढ़कर आर्यवीर नाथूराम से रहा न गया और उन्होंने ईसाईयों द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘तारीखे इस्लाम’ का उर्दू से सिन्धी में अनुवाद कर उसे प्रकाशित किया और एक ट्रैक लिखा जिसमे मुसलमान मौलवियों से इस्लाम के विषय में शंका पूछी गई थी। ये दोनों साहित्य नाथूराम जी ने निशुल्क वितरित की थी । इससे मुसलमानों में खलबली मच गई। उन्होंने भिन्न भिन्न स्थानों में उनके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन हलचलों और विरोध का परिणाम हुआ की सरकार ने नाथूराम जी पर अभियोग आरंभ कर दिया। नाथूराम जी ने कोर्ट में यह सिद्ध किया की प्रथम तो ये पुस्तक मात्र अनुवाद है इसके अलावा इसमें जो तर्क दिए गए है वे सब इस्लाम की पुस्तकों में दिए गए प्रमाणों से सिद्ध होते है। जज ने उनकी दलीलों को अस्वीकार करते हुए उन्हें 1000 रूपये दंड और कारावास की सजा सुनाई। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय से सारे सिंध में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस निर्णय के विरुद्ध चीफ़ कोर्ट में अपील करी गई। 20 सितम्बर 1934 को कोर्ट में जज के सामने नाथूराम जी ने अपनी दलीले पेश करी। अब जज को अपना फैसला देना था। तभी एक चीख से पूरी अदालत की शांति भंग हो गई। अब्दुल कय्यूम नामक मतान्ध मुस्लमान ने नाथूराम जी पर चाकू से वार कर उन्हें घायल कर दिया जिससे वे शहिद हो गए। चीफ जज ने वीर नाथूराम के मृत देह को सलाम किया। बड़ी धूम धाम से वीर नाथूराम की अर्थी निकली। हजारो की संख्या में हिन्दुओ ने वीर नाथूराम को विदाई दी। अब्दुल कय्यूम को पकड़ लिया गया। उसे बचाने की पूरजोर कोशिश की गयी मगर उसे फांसी की सजा हुई।

इतिहास से कुछ उदहारण यह दर्शाने के लिए दिए है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमारे यहाँ कितने महान आत्माओं ने अपने बलिदान दिए। हमारे देश में बिलकुल विपरीत हो रहा है।
 
अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दू समाज की मान्यताओं और सिद्धांतों को निशाना बनाया जाता हैं। उनका प्रत्युत्तर देने वालों को कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी कहा जाता हैं। आज देश को तोड़ने वाली शक्तियाँ अभिव्यक्ति के नाम पर उलटे सीधे प्रपंच कर समाज का अहित कर रही है। अभिव्यक्ति पर अंकुश होना दकियानूसी सोच है मगर अभिव्यक्ति का अनियंत्रित होना मीठे जहर के समान है। सदाचारी, पुरुषार्थी, धर्मात्मा मनुष्यों के हाथों में समाज का मार्गदर्शन होना चाहिए जिससे कि धर्मविरोधी, नास्तिक, भोग-विलासी, देशद्रोही ताकतों को अवसर न मिले। अंत में उन सभी महान आत्माओं को श्रद्धांजलि जिन्होंने समाज सुधार के लक्ष्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन की आहुति दी। डॉ. विवेक आर्य

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Thursday, October 22, 2020

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष को लव जिहाद पर कोसने वालें पढ़ लें अभी के 10 मामलें

22 अक्टूबर 2020


वामपंथी कविता कृष्णन ने मंगलवार (अक्टूबर 20, 2020) को राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के बीच हुई बैठक पर अपनी नाराजगी जताई।




राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस बैठक पर ट्वीट किया था, “हमारी अध्यक्ष रेखा शर्मा श्री भगत सिंह कोशियारी से मिली। महाराष्ट्र के महामहिम राज्यपाल ने बैठक में महिलाओं की सुरक्षा पर बात की। इसमें कोविड केंद्रों में महिलाओं के साथ हो रही छेड़छाड़, बलात्कार सहित लव जिहाद के मामले सम्मिलित थे।”

अब इस ट्वीट में उल्लेखित किए गए ‘लव जिहाद’ शब्द से सीपीआई (एमएल) सदस्य आहत हो गईं। उन्होंने आयोग अध्यक्ष की आलोचना करते हुए कहा कि रेखा शर्मा ने राष्ट्रीय महिला आयोग को शर्मसार किया है।

कविता कृष्णन ने पूछा कि लव जिहाद क्या है? क्या अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति हिंदू महिला से प्रेम करता है तो वह लव जिहाद है? कविता ने यह भी लिखा कि रेखा शर्मा की हिम्मत कैसे है कुर्सी पर बने रहने की। कृष्णन ने दावा किया कि उन्हें एक भी ऐसे केस नहीं मिले जहाँ मुस्लिम युवकों ने हिंदू बनकर महिला के साथ रिश्ता बनाया हो और उन पर धर्मांतरण का दबाव बनाया हो।

कविता कृष्णन ने लव जिहाद केसों पर कैसे अनभिज्ञता जताई। लव जिहाद के बढ़ते मामलों पर अनजान बनते हुए कविता कृष्णन जैसी वामपंथी महिला ने न केवल इन केसों पर अपनी अनभिज्ञता जताई बल्कि दावा किया कि उनकी रिसर्च में ऐसा कोई केस उनके सामने नहीं आया जहाँ मुस्लिम युवकों ने हिंदू महिला के साथ पहचान छिपा कर धोखा किया हो। उन्होंने अपनी बात रखते हुए रेखा शर्मा को कट्टर तक लिखा।

अब बता दें कि लव जिहाद एक ऐसी स्थिति है जहाँ मुस्लिम व्यक्ति हिंदू महिला को फँसाने के लिए उनसे झूठ बोलता है। वह या तो अपनी पहचान छिपाकर या अपना धर्म छिपाकर गैर मुस्लिम महिला के साथ संबंध बनाता है। कई बार लड़की को जब देर से हकीकत पता चलती है तो या तो उसे प्रताड़ित किया जाता है या फिर उसे मार दिया जाता है। कई बार महिला का जबरन धर्मांतरण करवा कर भी उसे नारकीय यातनाएँ दी जाती हैं।

यह कोई एक तकनीकी या कानूनी शब्दावली नहीं है, बल्कि इस शब्द का प्रयोग उन परिस्थितियों को देखकर किया जाता है जहाँ गैर मुस्लिम महिला पर मजहब परिवर्तन जैसे दबाव बनाए गए हों। कई बार कुछ पीड़िताएँ आपबीती सुनाते समय इस शब्द का प्रयोग नहीं करती, लेकिन उनके साथ हुए अन्याय की पूरी कहानी इस लव जिहाद शब्द को परिभाषित कर देती है।

कई महिलाएँ खुशकिस्मत होती हैं जो लव जिहाद की वीभत्सता का शिकार होने से पहले कट्टरपंथियों के चंगुल से निकल जाती हैं और दुनिया को हकीकत बताती हैं। मगर, कई दर्दनाक किस्से ऐसे भी होते हैं जिन्हें सुनाने के लिए लड़कियाँ जिंदा तक नहीं बच पाती।

आज कविता कृष्णन, जिन्हें लव जिहाद के मामले रिसर्च करने पर भी नहीं मिल रहे, उनके लिए हम कुछ केस लेकर आए हैं ताकि लव जिहाद शब्द का अर्थ उन्हें व उन जैसे लोगों को समझ आ सके।

वसीम अहमद ने दिनेश रावत बन दिया हिंदू लड़की को धोखा-

हाल में, मेरठ में वसीम अहमद नाम के युवक के ख़िलाफ़ एक मामला दर्ज हुआ था। लड़की ने अपनी शिकायत में कहा था कि युवक ने उसे हिंदू बन कर प्रेम के जाल में फँसाया और उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए, बाद में उसकी वीडियोज भी वायरल कर दीं। लड़की ने शिकायत में कहा था कि वसीम ने उसे अपनी पहचान दिनेश रावत के रूप में बताई थी।

लड़की के बयान में कहा गया था कि वसीम ने उसे शादी का झाँसा दिया था, मगर बाद में बताया कि उसके दो बच्चे हैं। शिकायत में पीड़िता ने ये भी कहा था कि जब उसने वसीम से इन सबके पीछे वजह पूछी तो उसने कहा, “मैंने तुम्हें धोखा दिया क्योंकि मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था।”

गोल्डी बन निजामुद्दीन ने विधवा को दिया धोखा-

22 अगस्त 2020 को 25 साल की विधवा ने निजामुद्दीन नामक शख्स के खिलाफ़ शिकायत करवाई। इसमें उसने बताया कि निजामुद्दीन ने उससे अपना मजहब छिपाकर संबंध बनाए और उसे गर्भवती बनाया। उसने अपनी पहचान पहले गोल्डी बताई थी मगर बाद में पता चला वह मुस्लिम है। इस हकीकत के खुलने के बाद वह उसे प्रताड़ित करने लगा। कुछ दिन बाद निजामुद्दीन और उसके घरवालों ने महिला को घर से बाहर कर दिया। हर ओर से आस खत्म होने के बाद महिला थाने पहुँची और धोखेबाजी का मुकदमा दर्ज करवाया।

पहचान छिपाकर खुर्शीद और अंसारी नें हिंदू बहनों को बनाया निशाना-

सितंबर माह में दिल्ली के ओखला से एक लव जिहाद का केस सामने आया। खुर्शीद और अंसारी ने दो हिंदू बहनों को निशाना बनाया। जब लड़कियों को इस संबंध में मालूम चला तो उन्होंने किसी भी प्रकार के रिश्ते को रखने से मना कर दिया, तब इन युवकों ने पार्किंग का बहाना बनाकर लड़की के परिवार पर हमला बोल दिया। इस घटना में लड़की के पिता की टाँग टूट गई थी। उनका इलाज एम्स में चला था।

प्रिया और कशिश को मार कर शमशाद ने दफनाया उन्हीं के घर में-

मेरठ के भूड़भड़ाल से माँ बेटी की हत्या मामला भी पिछले दिनों खूब चर्चा में था। प्रिया और कशिश की हत्या करने वाला शमशाद साल 2013 में प्रिया से अमित गुर्जर बनकर मिला था। बाद में सच्चाई खुलने पर उसने रो रोकर प्रिया को अपने साथ रखे रखा। कुछ दिन बाद पता चला कि उसकी एक बीवी भी है। विवाद बढ़ने पर शमशाद ने प्रिया और कशिश को मौत के घाट उतारकर उनके ही घर में दफना दिया । इस केस में प्रिया की सहेली चंचल की सक्रियता ने शमशाद को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचाया था।

कांग्रेस नेता समीर खान पर हिंदू नाबालिग ने लगाए गंभीर आरोप-

साल 2020 के सितंबर में एक नाबालिग लड़की सतना थाने पहुँची और उसने कांग्रेस नेता समीर खान उर्फ सिकंदर पर मामला दर्ज करवाया। लड़की ने कांग्रेस नेता समीर पर यौन शोषण का आरोप लगाया। खान के ख़िलाफ़ शिकायत में लड़की ने कहा कि उसने उसे सिकंदर बन कर मुलाकात की और बाद में उसे फार्म हाउस बुलाया। वहाँ समीर ने उसका रेप किया व उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें खींचीं। फिर करीब 3 साल तक उसका शोषण करता रहा। आखिरकार लड़की ने तंग आकर पुलिस को इस संबंध में बताया और मामला दर्ज हुआ।

शौकत अली ने साहिल कुमार बन रचाई शादी, बाद में करने लगा प्रताड़ित-

शौकत अली ने भी नेहा नाम की हिंदू महिला को झूठी पहचान बताकर फँसाया और फिर उसे आर्थिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू किया। सोशल मीडिया पर वायरल अपनी वीडियो में नेहा ने कहा था कि जयपुर में काम करते हुए वह शौकत के संपर्क में आई और उसने उसे अपनी पहचान कश्मीरी हिंदू साहिल कुमार के रूप में बताई। शादी के 6 महीने बाद शौकत अली उस पर धर्मांतरण का दबाव बनाने लगा और उसने अपने परिजनों के साथ मिलकर उसका शोषण भी किया।

शिबू अली बना सचिन, लड़की पर किया चाकू से हमला-

लव जिहाद के अन्य मामले में शिबू अली हिंदू महिला से सचिन कहकर मिला। इस केस में तो लड़की ने अपनी पूरी कहानी सोशल मीडिया पर सुनाई थी। पीड़िता ने कहा था कि जब मुस्लिम युवक की सच्चाई उजागर हुई तो उसे परेशान किया जाने लगा। उससे मारपीट करके उस पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाया गया। इतना ही नहीं , उसे गौमाँस खिलाने के लिए व मौलवी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को भी कहा गया। जब महिला शिबू के चंगुल से भाग निकली तब भी शिबू ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और अपनी नाफरमानी करता देख महिला पर चाकू से हमला किया।

कानपुर में पहचान छिपाकर हिंदू लड़कियों से दोस्ती करने के मामले-

यूपी के कानपुर में हिंदू नाबालिग के साथ भी लव जिहाद का मामला सामने आया। गोपाल नगर में रहने वाली पीड़ित के परिवार ने बजरंग दल के रामजी तिवारी की मदद से फतेह अली खान उर्फ आर्यन मेहरोत्रा के खिलाफ़ अपनी शिकायत करवाई। उन्होंने बताया कि कैसे कलावा पहनकर, तिलक लगाकर वह हिंदू लड़कियों को फँसाने के लिए मंदिर में जाता था।

एक अन्य मामला कुछ दिन पहले ही कानपुर के बजरिया थाने में सामने आया था। जहाँ लकी खान नाम के एक युवक ने अपना हिंदू नाम बता कर नाबालिग लड़की को अपने प्रेम जाल में फँसाया और उसकी अश्लील तस्वीरें ले कर इस्लाम धर्म कबूलने और निक़ाह करने के लिए युवती को ब्लैकमेल करने लगा। इस केस में भी लड़की के परिजनों ने लकी खान के खिलाफ एफआईआर करवाई और बताया कि लड़की मंदिर के बाहर फूल की दुकान लगाती थी। उससे दोस्ती करने के लिए लकी खान ने अपना नाम सिर्फ लकी ही बताया। जिससे युवती को आभास नहीं हुआ कि युवक संप्रदाय विशेष से है।

अनवर ने अनु बन हिंदू महिला को फँसाया-

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी पिछले महीने की 4 अगस्त को लव जिहाद का केस देखने को मिला। आउटर दिल्ली के किराड़ी इलाके में अनवर नाम के एक लड़के ने 20 साल की लड़की को अपना नाम अनु बताकर फँसाया और फिर कई महीनों तक उसके साथ बलात्कार करता रहा। सबसे पहले उसने जब युवती के साथ गलत काम किया तब उसने उसे कोल्डड्रिंक में नशीला पदार्थ डाल कर पिलाया था। फिर उसके बेहोश होते ही उसका बलात्कार किया और पूरी घटना को शूट कर लिया। बाद में यह सिलसिला चलता रहा। एक बार उसने लड़की को विश्वास में लेने के लिए उससे मंदिर में शादी भी की। मगर कुछ समय बाद पता चला वह अनु नहीं अनवर है।

वामपंथी मीडिया, और वामपंथी राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष का विरोध तो कर रहे हैं पर सच्चाई कभी छुप नहीं सकती लव जिहाद एक बड़ा षडयंत्र है उसको रोकना चाहिए।

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Wednesday, October 21, 2020

हिन्दुओं की हत्या पर मौन रहने वालें हिन्दू ‘फ्रांस की जनता’ होना कब सीखेंगे?

21 अक्टूबर 2020


फ्रांस में एक शिक्षक की इस्लामी आतंकवादी ने हत्या कर दी। घटना श्वेत पश्चिमी विकसित राष्ट्र में हुई थी तो निंदा वैश्विक थी एवं क्षोभ सार्वजानिक। भारत में ऐसी घटनाओं का इतना सामान्यीकरण हो चुका है कि अब न जनता से प्रतिक्रिया होती है न सरकार से। यदि प्रतिक्रिया हो भी तो शाब्दिक निंदा पर ही इस्लामविरोधी इत्यादि आरोप लगा कर लोगों को चुप करा दिया जाता है। श्वेतवर्णी समाज के एक व्यक्ति के जीवन का मूल्य चार अश्वेतों के समान अमेरिकी संविधान में 1964 तक माना जाता था।




वैचारिक दासता के दौर में आज भी उसमें अधिक परिवर्तन नहीं है जब यूरोप के राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के प्रताड़ित को शरण दें तो उसे मानवता कहा जाता है परन्तु यही जब भारत नागरिकता संशोधन के द्वारा करना चाहे तो वही पश्चिमी देश झुण्ड बना कर भारत की सम्प्रभुता पर टूट पड़ते हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि भारत में सरकार भी एक रामलिंगम, ध्रुव त्यागी, कमलेश तिवारी या राहुल राजपूत की हत्या पर सार्वजानिक वक्तव्य देने से बचती है। ऐसी मानव जीवन की क्षति पर सरकार की ओर से हर्जाना भी भिन्न-भिन्न मिलता है। सत्ता की सौतेली संतान होने का कष्ट उभर आता है, और लोग सरकार से नाराज़ हो लेते हैं।

भारतीय जनता पार्टी दूसरी बार सरकार में है परन्तु ऐसे समय रोष भाजपा के समर्थकों में अधिक दिखता है। फ्रांस के राष्ट्रपति इस जघन्य घटना की निंदा बिना लाग लपेट के इस्लामिक कट्टरवाद को जिम्मेदार ठहराते हुए कर सकते हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं? इस प्रश्न पर मेरा एक ही उत्तर है कि हमें वे तस्वीरें देखनी चाहिए जो फ्रांस की घटना के पश्चात विभिन्न शहरों में दिखती हैं। सैकड़ों की संख्या में फ्रांसीसी नागरिक सड़कों पर उतरे यह कहते हुए – “हम भयभीत नहीं हैं।” दिल्ली में राहुल राजपूत की हत्या हुई, करौली में पुजारी की हत्या हुई, उन्नाव में दो पुजारियों की हत्या हुई, पालघर में साधुओं की पुलिस के सामने हत्या हुई। हम पूछते हैं कि सरकार कुछ क्यों नहीं बोली, प्रधानमंत्री कुछ क्यों नहीं बोले?

सरकार बनने के बाद राजनीतिक दलों का काम समाप्त होता है परंतु समर्थकों का काम आरंभ होता है। नेता रोडवेज़ के ड्राइवर की तरह होते हैं और सवारी भरने पर ही बस में बैठते हैं। हज़ार लोगों का जुलूस कई शहरों में निकाल दीजिए, नेता पहुँच जाएँगे और समर्थन में भाषण भी देंगे। समर्थन में उतरी संख्या ही उनके राजनीतिक सरोकार तय करती है, उन्हें स्पष्ट बोलने का साहस देती है। झारखंड में एक हत्या हुई, केरल से लेकर दिल्ली तक लोग सड़क कर उतर गए। दिल्ली में पिछले दो महीने में दो हत्याएँ हुईं। तबरेज तो मार पीट के पाँच दिन बाद मरा, ये दोनों हत्याएँ तो तथ्यात्मक रूप से पिटाई से ही हुई। कितने लोग सड़क पर उतरे? पालघर में साधुओं की हत्या पर कितनी रैलियां निकली?

जब आप अपनी बात नहीं उठा सकते हैं तो सरकार क्यों उठाएगी? यदि लोग सड़क पर 2014 में नहीं उतरते तो आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार केंद्र में नहीं होती। बस का ड्राइवर बस यात्रियों को पहुँचाने के लिए चलाता है, लॉंग ड्राइव के लिए नहीं। कोई भी बस का ड्राइवर बिना सवारी ख़ाली बस लेकर कही नहीं जाएगा।

राजनीतिक बस पर चढ़िये, राजनीति भी बदलेगी, राजनैतिक संवाद भी। दस बड़े शहरों में दो-दो हज़ार की संख्या में लोग सड़क पर उतर कर पालघर पर न्याय मांगते तो मोदी क्या राष्ट्रपति भी राष्ट्र को संबोधित कर के निंदा करते। पालघर में कैमरे पर साधुओं की हुई हत्या पर तो सुशांत सिंह राजपूत के लिए न्याय मांगने वाले भी चुप हैं।

राजनीति एक बस स्टैंड है। हम एक नागरिक के नाते उस बस पर चढ़ना चाहते हैं जो भरी हुई है क्योंकि हमें लगता है वो बस पहले निकलेगी। सरकार भरी हुई बस को पहले स्टैंड से निकालती है। दोनों बातों में विरोधाभास है। हम टहल रहे हैं कि ड्राइवर आए तो बस में चढ़ेंगे, ड्राइवर चाय की प्याली पर प्याली पीते हुए दूर से दृष्टि रखे है की सवारियाँ भरें तो बस में जा के बैठे। क्या कार सेवा के बिना राम जन्मभूमि का निर्णय होता? न्यायपालिका उसे कश्मीरी पंडितों के केस की तरह प्राचीन मान कर न्यायपालिका से बाहर क्यों नहीं भेज देती? क्योंकि उस प्रश्न की बस तो अयोध्या गंतव्य के लिए निकली वह सवारियों से भरी हुई है।

सरकार आपके सोशल मीडिया के उत्कर्ष प्रलाप को पढ़कर काम नहीं करेगी। यह न तो सरकार के स्वभाव में है, न ही यह सरकार के लिए उचित ही है। सोशल मीडिया पर तो लोग मिनी स्कर्ट पर भी क्षोभ प्रकट करने लगते हैं, उस विलाप और प्रलाप पर सरकार कोई रूचि क्यों ले। उस पर कोई दल अपनी राजनीतिक पूँजी क्यों लगाएगा? भारत में 13 मिलियन या 1.3 करोड़ लोग ट्विटर पर हैं। मान लीजिए भाजपा के वोट शेयर के बराबर, लगभग 40% भाजपा समर्थक हैं। ये बने कोई पचास लाख। 130 करोड़ के देश में क्या राजनीति पचास लाख लोगों के विचारों पर होगी? मैं तो यह मानता हूँ कि ऐसा भ्रम पैदा कर के सत्ता पक्ष व विपक्षियों को व्यस्त रखा जाता हैं। कांग्रेस की सम्पूर्ण राजनीति सोशल मीडिया पर सिमट गई है और यह मान कर चल रही है की सरकारें वहीं से बनती हैं। राहुल गाँधी ट्विटर पर ज्ञान देते हैं, चुनाव हार जाते हैं।

घरों में बैठ कर समाज या सरकार दोनों नहीं बदली जाती। विपरीत विचारधारा सड़क पर उतरती है, अदालत में जाती है, माहौल बनाती है और सरकार को उस पर झुकना ही पड़ता है। महाराष्ट्र में यदि जनता धरने पर उतरती, अदालत में अर्ज़ी दाखिल होती तो पालघर के लिए जाँच के लिए केंद्रीय ब्यूरो क्यों न उतरता या किसी न्यायाधीश के निरीक्षण में जाँच क्यों नहीं होती। साधुओं के परिवारों को, राहुल राजपूत के परिवार को शासन से वही मदद क्यों नहीं मिलती जो जुनैद और तबरेज़ को मिली। मोदी जी भी सार्वजनिक मंचों से घटना की निंदा करते। 130 करोड़ के देश में एक हत्या अन्य हत्याओं के मुक़ाबले प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के ध्यान या समय के योग्य क्यों है, इसका निर्णय इस पर है कि मूक रहने पर और बोलने पर कितना समर्थन मिलता है।

अपेक्षाएं होती हैं तो ऐसे प्रश्न उठते हैं। ऐसे ही प्रश्न योगी आदित्यनाथ से भी पूछे जाते हैं। उनसे यही कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री बनाए हो प्रभु, लठैत नहीं रखे हो। सड़क बन रही है, कोरोना नियंत्रण में है, दंगे दिल्ली से उत्तरप्रदेश नहीं फैले, माफिया के घर टूट रहे हैं, उद्योग आ रहे हैं। गोरखपुर में बालकों की जापान इनसेमफिलिटिस से मृत्यु लगभग बंद हो गई है। प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री का पद संवैधानिक पद है। अब कॉलोनी में ‘जागते रहो, जागते रहो’ कर के भी महाराज जी लाठी पीटते तो नहीं घूमेंगे।

एक ओर वह वर्ग या समाज है जो राजनीतिक एवं वैधकीय अतिसक्रियता का लाभ शासन से और न्यायपालिका से अपनी पसंद के निर्णय एवं वक्तव्य निकाल रहा है। आपको सत्ता का वही स्नेह चाहिए तो आपको भी सड़क पर आना होगा, एक संख्या बल सड़क पर दिखाना होगा जिसकी विदेशी मीडिया भी उपेक्षा न कर सके। यदि दिल्ली की या मुंबई की सड़कें भर जाएँ पालघर पर तो उन्हें रिपोर्ट करना होगा, उन्हें इसका कारण भी अपनी रिपोर्ट में लिखना होगा।

आप न्यायपालिका का ध्यानाकर्षण इन विषयों पर करते रहे तो उन पर निर्णय भी होंगे और समाचार पत्रों को छापने भी होंगे। आप बीस करोड़ पोस्ट कार्ड लिख के प्रधानमंत्री कार्यालय भेजेंगे तो प्रधानमंत्री भी उस पर ध्यान देंगे, कानून भी संसद में लाएँगे। मंदिर भी सरकारी प्रतिबन्ध से बाहर निकालेंगे, संभवतः संविधान के आपातकाल में किये गए संशोधन भी हटेंगे यदि जैसा वामपंथी करते हैं दक्षिणपंथी कानून, मीडिया और सड़क पर प्रदर्शन को साथ में जोड़ कर मुहिम चलाते हैं।

भारत पर गौरी या ख़िलजी की जीत का बड़ा कारण जनता का जातियों में कटा रहना था, जिसके कारण बड़ा वर्ग न युद्ध के लिए प्रशिक्षित था ना ही उसमें रुचि रखता था। जैसे आज लोग पालघर या दिल्ली लिंचिंग पर मोदी को कोसते हैं, तब पृथ्वीराज चौहान को कोसते होंगे। सोचिए पसंद की सरकार को सत्ता पर बैठा कर जनता के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती है। सत्ता वर्षों से बने समीकरणों को, लोकतंत्र ही सामाजिक सिद्धांतों में परिवर्तन ला सकता। एक राष्ट्र की जनता जब अपने शासकों को सामाजिक परिवर्तनों का उत्तरदायित्व सौंप कर उदासीन एवं निष्क्रिय हो जाती है, उसका क्षेत्र जावा से, वियतनाम से, ईरान से, बर्मा से पाकिस्तान और बांग्लादेश से संकुचित होता होता वहाँ पहुँच जाता है जहाँ एक संस्कृति के लिए अपने पँजों पर खड़े होने की भूमि भी नहीं होती है।

संस्कृति की रक्षा निष्क्रिय प्रेम से नहीं होती है, सक्रिय कर्म से होती है। यदि भ्रष्ट्राचार के विरोध में जनता 2014 में सड़क पर नहीं उतरी होती, तो आज प्रधानमंत्री मोदी भी सत्ताधीश नहीं हुए होते। संख्या बल वही सक्षम होता है जो साक्ष्य होता है, स्पष्ट होता है। सरकार को चुनकर हमने कोई ठेका नहीं दिया है और दिया भी हो तो उपभोक्ता की उपेक्षा की स्थिति में तो ठेकेदार उतना ही और उसी गुणवत्ता का कार्य करता है जितना न्यूनतम आवश्यक हो। सरकार से उस न्यूनतम सीमा से अधिक कार्य कराना हो तो बोलना होगा, लिखना होगा, पहुँचना होगा, सबसे बढ़कर – एक हो कर दिखना होगा।

एक फ़िल्म कुछ वर्षों पहले आई थी- गुलाल! उसके एक वाक्य को शिष्टता का आवरण पहना कर यह लेख समाप्त करता हूँ- “अपने पृष्ठपटल पर बैठे रहने से स्वराज्य नहीं आएगा, धर्म और संस्कृति की रक्षा नहीं होगी।” राष्ट्रीय राजनीति उतनी ही नैतिक होगी जितना नागरिक जागृत होगा। एक बार फिर फ्रांस में सड़कों पर उमड़ी, श्रद्धांजलि देती जनता का चित्र देखें और विचार करें।

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Tuesday, October 20, 2020

मंदिरों पर राजकीय कब्जा क्यों? हिन्दू आज भी जजिया भर रहे हैं (भाग-2)

 

20 अक्टूबर 2020

 
पारंपरिक भारत में किसी हिन्दू राजा ने मंदिरों पर अपना अधिकार, या नियंत्रण नहीं जताया था, न कभी टैक्स वसूला था। भारतीय परंपरा में राजा को धर्म या धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप करने का कभी कोई उदाहरण नहीं मिलता। वें तो सहायता व दान देते थे, न कि लेते थे जो स्वतंत्र भारत की राजसत्ता कर रही है। यह जबरदस्ती मुगल काल के अवशेष हैं जब मंदिरों को तरह-तरह के राजकीय अत्याचार या नियंत्रण को झेलना पड़ता था। फिर अंग्रेज शासकों ने 1817 ई. में उसी तरह के कुछ नियंत्रण बनाए। उस का लाभ क्रिश्चियन मिशनरियों ने उठाया, जिन की धर्मांतरण योजनाओं को मंदिरों को कमजोर करने से कुछ मदद मिली। हालाँकि बाद में, 1863 ई. तक यहाँ अंग्रेज शासकों ने कई मंदिर हिन्दू न्यासियों को वापस भी सौंप दिए। क्योंकि उसे कुछ कारणों से इंग्लैंड में पसंद नहीं किया गया।




लेकिन फिर 1925 ई. में अंग्रेज शासकों ने भारत में धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण करने का कानून बनाया। लेकिन क्रिश्चियनों और मुसलमानों द्वारा तीव्र विरोध के कारण 1927 ई. में वह कानून संशोधित किया गया, और उन्हें उस कानून से छूट दे दी गई। इस प्रकार, केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण रखने का कानून रहा। प्रायः दक्षिण भारत में, क्योंकि विशाल, समृद्ध, संपन्न मंदिर वहीं थे। उत्तर भारत तो पिछले इस्लामी शासकों की बदौलत लगभग मंदिर-विहीन हो चुका था। यह भी ध्यातव्य है कि ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का उपाय करते हुए जहाँ 1925 ई. में हिन्दुओं को मंदिरों के संचालन से वंचित किया गया, सिखों को विशेष शक्ति-संपन्न बनाया गया। उसी साल अंग्रेजों ने सिख गुरुद्वारा एक्ट बनाकर गुरुद्वारों का संचालन एक विशेष समूह को सौंप दिया। यह बहुत बड़ा निर्णय साबित हुआ, जिस से सिखों के एक पंथ को विशिष्ट, एकाधिकारी शक्ति प्राप्त हो गई। उस से पहले गुरुद्वारे तरह-तरह के पंथों द्वारा चलते थे।

फिर, 1935 ई. में एक और कानून बनाकर अंग्रेज सरकार ने किसी भी मंदिर को चुन कर अपने नियंत्रण में लेने का प्रावधान किया। इस तरह, अंग्रेजों ने अपने-अपने धर्म-संस्थान संचालन के लिए क्रिश्चियनों-मुसलमानों, हिन्दुओं, और सिखों के लिए तीन तरह के कानून बना दिए। ताकि अपने हितों के लिए वे सहज ही अलग-अलग महसूस करें। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत की देशी सरकार ने भी शुरू में ही (1951 ई.) हिन्दू धार्मिक संस्थानों को अपने नियंत्रण में रख सकने का कानून बनाया। उद्देश्य यह बताया गया ताकि उस की ‘सुचारू व्यवस्था’ की जा सके। यह किसी ने नहीं पूछा कि वही व्यवस्था मस्जिद या चर्च की होनी क्यों अनावश्यक है? यह व्यवस्था कैसी रही है, यह इसी से समझा जा सकता है कि 1986-2005 ई. के बीच बीस वर्षों में तमिलनाडु में मंदिरों की हजारों एकड़ जमीन ‘चली’ गई। अन्य हजारों एकड़ पर भी अवैध अतिक्रमण हो चुका है! यह सरकारी कब्जे की सुचाऱू व्यवस्था का एक नमूना है।

दूसरा नमूना यह कि अनेक मंदिरों से अनेकानेक बहुमूल्य मूर्तियाँ चोरी होती रही हैं, जो अनमोल होने के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक विरासत भी है। किन्तु आज तक किसी को उस का जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। किसी भी गैर-सरकारी नियंत्रण में ऐसा होना असंभव है कि इतनी बड़ी चोरियों पर किसी की जिम्मेदारी न बने। न किसी को दंड मिले! तीसरे, कई प्रतिष्ठित मंदिरों की पारंपरिक पुरोहित व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। सरकारी अमलों ने उस की परवाह नहीं की, या उस में हस्तक्षेप कर जाने-अनजाने बिगाड़ा। कई मामलों की तरह कांग्रेस के ‘स्यूडो सेक्यूलरिज्म’ और भाजपा के ‘रीयल सेक्यूलरिज्म’ में इस बिन्दु पर भी कोई अंतर नहीं है। राजस्थान में भाजपा राज में मंदिरों की कुछ संपत्ति पर भी कब्जा किया गया था। हरियाणा में भी समाचार हैं कि हिसार जिले के दो महत्वपूर्ण मंदिरों को कब्जे में लेने पर सत्ताधारी सोच रहे हैं।

आश्चर्य की बात यह भी है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एटॉर्नी जेनरल वेणुगोपाल ने भी कहा था कि मंदिरों के संचालन में राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। उन्होंने संकेत किया कि एक पंथ-निरपेक्ष राज्य प्रणाली में सरकार द्वारा मंदिरों पर नियंत्रण रखना उपयुक्त नहीं है। यह सब कहे जाने के बाद से साल भर से भी ज्यादा बीत चुका। मगर चूँकि मामला हिन्दू धर्म-समाज का है, इसीलिए इस पर हर प्रकार के सत्ताधारियों की उदासीनता एक सी है। कोर्ट में पिटीशन या कार्यपालिका को निवेदन, सब ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं।

प्रश्न हैः भारतीय राज्यसत्ता हिन्दुओं को अपने मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने के अधिकार से जब चाहे क्यों वंचित करती है? जबकि मुस्लिमों, ईसाइयों की संस्थाओं पर कभी हाथ नहीं डालती। यह हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव नहीं तो और क्या है? केरल से लेकर तिरूपति, काशी, बोधगया और जम्मू तक, संपूर्ण भारत के अधिकांश प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा कर लिया गया है। इन में हिन्दू जनता द्वारा चढ़ाए गए सालाना अरबों रूपयों का मनमाना उपयोग किया जाता है।

जिस प्रकार, चर्च, मस्जिद और दरगाह अपनी आय का अपने-अपने धार्मिक विश्वास और समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं – वह अधिकार हिन्दुओं से छिना हुआ है! कई मंदिरों की आय दूसरे धर्म-समुदायों के क्रियाकलापों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से हिन्दू मंदिरों की आय से मुसलमानों की हज सब्सिडी देने की बात कई बार जाहिर हुई है।

यह किस प्रकार का सेक्यूलरिज्म है? यह तो स्थाई रूप से हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव है, जो सहज न्याय के अलावा भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है। सामान्य मानवीय समानता के विरुद्ध तो है ही। यह अन्याय राजसत्ता के बल से हिन्दू जनता पर थोपा गया है। इस पर कोई राजनीतिक दल आवाज नहीं उठाता।

कुछ लोग तर्क करते हैं कि हिन्दू मंदिरों, धार्मिक न्यासों पर राजकीय नियंत्रण संविधान-सम्मत है। संविधान की धारा 31A के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्ति का अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1997) के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है।” अतः यदि हमारे देश में राज्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उस का संचालन अपने हाथ में ले लिया, तो यह ठीक ही है।

वस्तुतः आपत्ति की बात यह है कि संविधान की धारा 31(ए) का प्रयोग केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर हुआ है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तियाँ कितने भी घोटाले, विवाद, हिंसा या गड़बड़ी की शिकार हों, उन पर राज्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी रिलीजन का नाम लेकर छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में भी ‘किसी धार्मिक संस्था’ या ‘ए रिलीजन’ की बात की गई है। मगर व्यवहारतः केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर राज्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। चाहे बहाना सही-गलत कुछ हो।

इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में केवल हिन्दू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार नहीं, जो अन्य को है। यह अन्याय हिन्दू समुदाय को अपने धर्म और धार्मिक संस्थाओं का, अपने धन से अपने धार्मिक कार्यों, विश्वासों का प्रचार-प्रसार करने से वंचित करता है। उलटे, हिन्दुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए धन का हिन्दू धर्म के शत्रु मतवादों को मदद करने में दुरुपयोग करता है। यह हमारी राज्यसत्ता द्वारा और न्यायपालिका के सहयोग से होता रहा है – इस अन्याय को कौन खत्म करेगा? (जारी...) - डॉ. शंकर शरण

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