Sunday, January 22, 2017

आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास

सुभाष चन्द्र बोस जयंती - 23 जनवरी 

आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास..!!

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद चन्द्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास

शिक्षादीक्षा से लेकर आईसीएस तक का सफर..!!

कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व संभाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।

इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रक्खा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।

स्वतन्त्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य..!!

कोलकाता के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी से मिले। मुम्बई में गांधी जी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई 1921 को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गाँधी जी ने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दासबाबू से मिले।

उन दिनों गाँधी जी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गये। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाष ने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा।

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गाँधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिये गाँधी जी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गाँधी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।

कारावास!!

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।

1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।

5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की कारागृह में मृत्यु हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।

1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।

यूरोप प्रवास!!

सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी।

बाद में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस विश्लेषण में उन दोनों ने गान्धी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद विठ्ठल भाई पटेल जब बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे, उनका निधन हो गया।

विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी सम्पत्ति गान्धी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।

1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।

ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह

सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल (अं: Emilie Schenkl) नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। अनिता अभी जीवित है। उसका नाम अनिता बोस फाफ (अं: Anita Bose Pfaff) है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती है।

हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्ष पद

1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया।

इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी की।

1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चीनी जनता की सहायता के लिये डॉ॰ द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व में चिकित्सकीय दल भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाष ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया तब कई लोग उन्हे जापान की कठपुतली और फासिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाष न तो जापान की कठपुतली थे और न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।

कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गान्धीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें सुभाष की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को खत लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने की विनती की। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।

सब समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वे सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। 

1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गान्धीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की।

3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।

अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तंभ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।

इसके परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

नजरबन्दी से पलायन

कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित नेताजी भवन जहाँ से सुभाष चन्द्र बोस वेश बदल कर फरार हुए थे। इस घर में अब नेताजी रिसर्च ब्यूरो स्थापित कर दिया गया है। भवन के बाहर लगे होर्डिंग पर सैनिक कमाण्डर वेष में नेताजी का चित्र साफ दिख रहा है।

नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।

काबुल में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात

बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये।

आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होने सुभाष को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।

कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

अन्त में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्वी एशिया पहुँचकर सुभाष ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।

जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।


21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।

आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।

पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने " दिल्ली चलो" का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श प्रस्तुत किया।

6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी माँगा। इस प्रकार नेताजी ने ही सर्वप्रथम गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपने अपमान के बदले उन्हें सम्मानित करने का कार्य किया था।

लापता होना और मृत्यु की खबर

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।

23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू (जापानी भाषा: 臺北帝國大學, Taihoku Teikoku Daigaku) हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।

देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी।

सुनवाई के लिये विशेष पीठ का गठन

कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दे दिया है। यह याचिका सरकारी संगठन इंडियाज स्माइल द्वारा दायर की गयी है। इस याचिका में भारत संघ, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, रॉ, खुफिया विभाग, प्रधानमंत्री के निजी सचिव, रक्षा सचिव, गृह विभाग और पश्चिम बंगाल सरकार सहित कई अन्य लोगों को प्रतिवादी बनाया गया है।

भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव

हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।

आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।

जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।

Saturday, January 21, 2017

नोटबन्दी की घोषणा के जैसे ही कत्लखाने बंद करने की घोषणा करने की सिफारिश की - संत रामविचारजी महाराज ने !!



मोदीजी कत्लखाने बन्द करने की तारीख की भी घोषणा कर दीजिये - संत रामविचारजी !!

जोधपुर शहर में हुए एक समारोह को संबोधित करते हुए संत रामविचारजी महाराज ने प्रधानमंत्री मोदी को नोटबन्दी की घोषणा की तारीख के जैसे ही कत्लखाने बंद करने की तारीख घोषणा करने की सिफारिश की ।


महाराज श्री ने बताया कि 8 नवम्बर की रात्रि को जो घोषणा हुई उसे पूरा भारत देश हिल गया और घोषणा भी बड़ी क्रान्तिकारी हुई । ये सभी लोगो को मानना पड़ा मैं जानता हूँ ।

 उस समय मोदीजी ने कहा था कि मैं आपसे 50 दिन मांगता हूं । आप मुझे 50 दिन दे दे उसके बाद मैं भारत का नक्शा बदल दूंगा । भारत की जनता ने इसे स्वीकार किया और 50 दिन दिए अब मैं भी निवेदन करता हूँ मोदीजी से कि..

मोदीजी,आपने 50 दिन मांगे भारत की जनता ने 50 दिन दिए भी और आपकी बात भारत की जनता ने मानी है तो एक बार आप भी हमारी माने !! 

आपने एक तारीख निकाली 8 नवम्बर जिसे पूरे भारत को मानना पड़ा । मैं चाहता हूँ कि मोदीजी एक ऐसी तारीख भी निकाले जिसमें रात को घोषणा हो कि भारत में सारे कत्लखाने बंद हो जाए । 

https://youtu.be/14jOUQsyVfA

एक भी गाय भारत में न कटे ऐसी बात भी भारत के प्रधानमंत्री के मुँह से निकालनी चाहिए ।

 ऐसी हम आशा करते हैं क्योंकि तारीखें आ रही हैं एक से एक ! एक तारीख ऐसी भी आनी चाहिए । 

हम चाहते हैं कि आप ऐसे काम करें जिससे हमारा भारत एक नंबर पर रहे लेकिन इसके साथ दुर्भाग्य से ये भी कहना पड़ रहा है । गौहत्या के लिए भी भारत उतना ही जिम्मेदार है जितना हम सब बाकि सब चर्चाओं में हैं । जितने कत्लखाने भारत देश में हैं अन्य देशों में नही है । ये कलंक भी भारत को झेलना पड़ता है ।

महाराज जी ने आगे बताया कि एक बात मेरे भी समझ में नहीं आई..!! 
मोदीजी हमेशा रेडियो में कहते आये हैं मन की बात..!!
मन की बात बताने की नही करने की होती है । इसलिए ऐलान हो गया 
अब मैं चाहता हूँ कि भारत देश भी ऐसा हो एक बार एक तारीख ऐसी भी आये कि जिससे गाये बच जाए, गौ कत्लखाने बंद हो, गौ माता की सेवा हो ।

प्रधानमंत्री से निवेदन करते हुए उन्होंने आगे कहा कि मैं निवेदन करता हूँ कि मोदीजी आप कर सकते हैं और जरूर करें कत्लखाने बंद होंगे, जनता को बहुत खुशी होगी ।

दो रुपये चवन्नी गंगा जी को चढ़ाते थे, हजार हजार लीटर घी चढ़ाये, पैक भर-भर कर बाहर फैंक रहे हैं और इतना डरा दिया कि 2,50,000 से ज्यादा लिया तो खैर नही !! अब आदमी डर-डर के करे तो क्या करे..??

 2,50,000 तो होते ही हैं सबके पास !! अब 2,50,000 से ज्यादा वहां तो मन की बात है क्या करें क्या ना करे..??

तो लोग व्यर्थ में जला रहे हैं ।  कोई फेंक रहा है, कोई क्या कर रहा है, 

मोदीजी को एक काम करना चाहिए। एक शाखा खोले तुम्हारा कोई ब्योरा नही लिया जायेगा सारे पैसे यहाँ जमा कर जाये । जितने भी भारत की गौशालाएं हैं। सब में दे दिया जाय न गंगा में बहाने की जरुरत है, न जलाने की जरुरत है, न डरने की जरुरत है । जो हुआ जैसे हुआ होने दो लेकिन कम से कम वो कागज के टुकड़े बने व्यर्थ जाये इससे अच्छा गौमाता तक पहुँच जाये चारे के रूप में ।

भारतमाता की गायों को चारा मिलेगा तो आशीष मिलेगी और सभी का धन सार्थक बनेगा । भारत की गाय बचे ये हमारी इच्छा रहती है ।

गौरतलब है कि मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले गुलाब क्रांति (पशुहत्या) के खिलाफ खूब आवाज उठाई थी लेकिन अभीतक एक भी कत्लखाना बन्द नही हुआ बल्कि प्रधानमंत्री बनने के बाद कत्लखानों के लिए 15 करोड़ सब्सडी कर दी थी । जिससे कई गौ रक्षक नाराज होकर उनके खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं।


आपको बता दें कि पशु कल्याण के लिए सरकार ने 1962 में 28 सदस्यीय एनीमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया (एडब्ल्यूबीआई) का गठन किया था जिसके लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के जरिये फंड भेजा जाता है। 2011-12 में एडब्ल्यूबीआई के लिए 21.7  करोड़ रुपये का आबंटन हुआ था, 2015-16 में यह राशि घटकर 7.8 करोड़ हो गई है। देश भर में चार हजार से अधिक गौशालाओं में साढ़े तीन करोड़ गौवंश हैं। एडब्ल्यूबीआई के चेयरमैन डॉ. आर.एम. खर्ब के मुताबिक, 'एक गाय पर रोज का खर्चा कम से कम सौ रुपये है, मगर केंद्र सरकार से जो अनुदान राशि मिल रही है, उससे गौशालाओं में संरक्षित एक गाय के हिस्से साल में सिर्फ दो रुपये आते हैं।' यह है गाय पर राजनीति करने वाली सरकार का असली चेहरा!

इसके ठीक उलट सरकार ने देश भर के कसाईघरों को आधुनिक बनाने के वास्ते 2002 में दसवीं पंचवर्षीय योजना के तहत 5 हजार 137 करोड़ की राशि का आबंटन किया था, ताकि बीफ  एक्सपोर्ट में हम पीछे न रह जाएं। देश का दुर्भाग्य है कि कसाईघरों के आधुनिकीकरण पर हम हजारों करोड़ खा रहे हैं, मगर पशुओं के संरक्षण के वास्ते सरकार के खजाने में पैसे नहीं हैं।


मोदी सरकार आने के बाद पहला बजट जो पास किया गया जिसमें कत्लखाने खोलने के लिए 15 करोड़ सब्सिडी प्रदान की जाती है ।
2014 में  4.8 अरब डॉलर का बीफ एक्सपोर्ट हुआ था । 2015 में भी भारत, 2.4 मिलियन टन बीफ एक्सपोर्ट कर दुनिया में नंबर वन बन गया। 

आपको बता दें कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 हजार गायें बड़ी बेरहमी से काटी जा रही हैं । 1947 में गोवंश की जहाँ 60 नस्लें थी। वहीं आज उनकी संख्या घटकर 33 ही रह गयी है । हमारी अर्थव्यवस्था का आधार गाय है और जब तक यह बात हमारी समझ में नहीं आयेगी तबतक भारत की गरीबी मिटनेवाली नहीं है । गोमांस विक्रय जैसे जघन्य पाप के द्वारा दरिद्रता हटेगी नहीं बल्कि बढ़ती चली जायेगी । गौवध को रोकें और गोपालन कर गोमूत्ररूपी विषरहित कीटनाशक तथा दुग्ध का प्रयोग करें । गोवंश का संवर्धन कर देश को मजबूत करें ।

Friday, January 20, 2017

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने कहा कि साध्वी प्रज्ञा को जमानत मिलने पर कोई आपत्ति नही

🚩राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने कहा कि साध्वी प्रज्ञा को जमानत मिलने पर कोई आपत्ति नही..!!

🚩वर्ष 2008 में हुए #मालेगांव बम धमाका मामले में गुरुवार को एक नया मोड़ तब आया जब राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) ने बॉम्बे हाई कोर्ट में कहा कि इस मामले की मुख्य अभियुक्त #साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को जमानत देने पर उसे कोई ऐतराज नहीं है ।
राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ने कहा कि साध्वी प्रज्ञा को जमानत मिलने पर कोई आपत्ति नही

🚩एनआईए के इस रुख के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बड़ी राहत मिल सकती है । उन्होंने निचली अदालत में जमानत की अर्जी दाखिल की थी, जो खारिज कर दी गयी थी । साध्वी प्रज्ञा ने इसे बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी है ।

🚩अदालत में NIA की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह ने कहा कि एजेंसी ने पहले ही यह जानकारी दे दी है कि यह मामला मकोका के प्रावधान लागू करने योग्य नहीं है।

🚩साध्वी की अपील पर #न्यायाधीश आरवी मोरे और न्यायाधीश शालिनी फनसालकर जोशी की पीठ सुनवाई कर रही है। #NIA की तरफ से अदालत में सॉलिसिटर जनरल सिंह ने कहा कि मामले में महाराष्ट्र एटीएस ने आरोपियों के अन्य विस्फोटों में शामिल होने और संगठित अपराध समूह का हिस्सा होने के आधार पर मकोका लागू किया था।


🚩सिंह ने आगे कहा कि NIA की जांच में यह बात सामने नहीं आई कि आरोपी केवल मालेगांव ब्लास्ट में ही आरोपी थे, जिस कारण से उन पर मकोका लागू ही नहीं होता । NIA की ओर से जांच शुरू किए जाने से पहले ही कई गवाह अपने बयान से पलट गए और उनकी ओर से शिकायत की गई कि उन्हें एटीएएस की ओर से झूठा बयान देने के लिए मजबूर किया गया था, ऐसे में इन सब बातों पर विचार करते हुए NIA साध्वी को #जमानत दिए जाने पर कोई आपत्ति नहीं करेगी।

🚩दूसरी ओर, मालेगांव बम धमाके की जाँच करने वाले विशेष जांच दल (एटीएस) में शामिल रहे महाराष्ट्र के पूर्व #पुलिस अधिकारी #महबूब मुजावर ने हाल ही में सोलापुर की अदालत में हलफनामा दायर कर दावा किया था कि धमाके के तीन अभियुक्तों को एटीएस अधिकारियों ने साल 2008 में ही मार डाला था ।

🚩महबूब मुजावर का ये भी दावा है कि उनके शव, मुंबई चरमपंथी हमले में मारे गए लोगों के साथ ही जला दिए थे । इन दावों की वजह से महाराष्ट्र एटीएस की अब तक की जाँच सवालों के घेरे में आ गई है ।

🚩साध्वी प्रज्ञा के वकील प्रशांत मग्गू ने बताया कि "हमने अदालत को मुजावर के हलफनामे के बारे में विस्तार से बताया है । हमारा मानना है कि महाराष्ट्र एटीएस ने इस मामले में झूठे सबूतों के आधार पर #बेगुनाहों को गिरफ्तार किया है । मुझे आशा है कि साध्वी को जल्द ही जमानत मिल जाएगी ।"

🚩इस मामले की अगली सुनवाई 31 जनवरी को होगी ।

🚩गौरतलब है कि साध्वी प्रज्ञा 9 साल से जेल में है और #कैंसर से पीड़ित हैं, उनके खिलाफ अभीतक एक भी सबूत नही है, यहाँ तक कि उनको फंसाने के कई सबूत मिल चुके हैं। उसके बाद भी अभी तक जमानत नही मिलना ये देश के लिए शर्मनाक बात है ।

🚩आपको बता दें कि जॉइंट इंटेलीजेंस कमेटी के पूर्व प्रमुख और पूर्व उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डॉ. एस डी प्रधान ने भी  #मालेगांव और #समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट को लेकर कई सनसनीखेज खुलासे किए हैं। 

🚩प्रधान ने बताया कि ब्लास्ट होने वाला है वो हमें पहले ही पता चल गया था और हमने #गृह मंत्रालय में भी बता दिया था लेकिन #पी. चिंदबर ने राजनैतिक के फायदे के लिए #साध्वी प्रज्ञा, #स्वामी असीमानंद आदि हिन्दू #साधु-संतों को फंसाने के लिए भगवा आतंकवाद नाम देकर उनको जेल भेज दिया था।

🚩जैसा कि हमने पहले भी कई बार बताया है कि #साध्वी प्रज्ञा, #स्वामी असीमानन्द, #कर्नल पुरोहित, #बापू #आसारामजी, #श्री #नारायण साईं, #धनंजय देसाई आदि को फंसाने के पीछे कई सबूत मिल चुके हैं। लेकिन उनको इसलिये जेल में रखा गया है कि वो कट्टर हिंदुत्ववादि हैं।
 🚩उन्होंने लाखों हिंदुओं की #घरवापसी करवाई । 
🚩विदेशी प्रोडक्ट पर रोक लगाई ।
इसलिये उनको विदेशी ताकतों ने मीडिया द्वारा बदनाम करवाया है । जिसका असर न्यायपालिका के फैसलों पर भी पड़ा है ।

🚩अब देखना ये है कि #हिन्दुत्वादी कहलाने वाली #सरकार #कब इन #हिन्दू #संतों को #न्याय दिलवाती है..???

🚩जागो हिन्दू !!

Thursday, January 19, 2017

20 जनवरी को कश्‍मीरी पंडितों को काफिर करार दिया गया था..!!

20 जनवरी को कश्‍मीरी पंडितों को काफिर करार दिया गया था..!!

जानिए इतिहास!!
Azaad-Bharat-कश्‍मीरी पंडित
20 जनवरी जब-जब यह तारीख आती है, कश्‍मीरी पंडितों के जख्‍म हरे हो जाते हैं। यही वह तारीख है जिसने जम्‍मू कश्‍मीर में बसे कश्‍मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर दिया। इस तारीख ने उनके लिए जिंदगी के मायने ही बदल दिए थे।

कश्‍मीरी पंडितों को बताया काफिर!!

https://youtu.be/LPcfGSS04hQ
20 जनवरी 1999 को कश्‍मीर की मस्जिदों से कश्‍मीरी पंडितों को काफिर करार दिया गया। मस्जिदों से लाउडस्‍पीकरों के जरिए ऐलान किया गया, 'कश्‍मीरी पंडित या तो मुसलमान धर्म अपना लें, या चले जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें।' यह ऐलान इसलिए किया गया ताकि कश्‍मीरी पंडितों के घरों को पहचाना जा सके और उन्‍हें या तो इस्‍लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया जाए या फिर उन्‍हें मार दिया जाए।

कश्मीरी पंडितों के सर काटे गए, कटे सर वाले शवों को चौक-चौराहों पर लटकाया गया था ।

बड़ी संख्‍या में कश्‍मीरी पंडितों ने अपने घर छोड़ दिए। आंकड़ों के मुताबिक 1990 के बाद करीब 7 लाख कश्मीरी पंडित अपने घरों को छोड़कर कश्‍मीर से विस्थापित होने को मजबूर हुए।

सरेआम हुए थे बलात्कार!!

एक कश्मीरी पंडित नर्स के साथ आतंकियों ने सामूहिक बलात्कार किया और उसके बाद मार-मार कर उसकी हत्या कर दी। घाटी में कई कश्मीरी पंडितों की बस्तियों में सामूहिक बलात्कार और लड़कियों के अपहरण किए गए। 

मस्जिदों में भारत एवं हिंदू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। सभी कश्मीरियों को कहा गया कि इस्लामिक ड्रेस कोड अपनाएं।

डर की वजह से वापस लौटने से कतराते!!

आज भी कश्‍मीरी पंडितों के अंदर का डर उन्‍हें वापस लौटने से रोक देता है। कश्‍मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ने से पहले अपने घरों को कौड़‍ियों के दाम पर बेचा था। 27 वर्षों में कीमतें तीन गुना तक बढ़ गई हैं। आज अगर वह वापस आना भी चाहें तो नहीं आ सकते क्‍योंकि न तो उनका घर है और न ही घाटी में उनकी जमीन बची है। इस मौके पर अभिनेता अनुपम खेर ने एक कविता शेयर की है। आप भी देखिए अनुपम ने कैसे कश्‍मीरी पंडितों का दर्द बयां किया है।


फरीदाबाद (हरियाणा) के सेक्टर 37 स्थित कश्मीरी भवन में यूथ फॉर पनून कश्मीर तथा कश्मीरी पंडित वेलफेयर असोसिएशन द्वारा कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन हेतु विशेष कार्यक्रम का अायोजन किया गया था उसमे कर्नाटक के श्री प्रमोद मुतालिक, श्रीराम सेना (राष्ट्रिय अध्यक्ष)  ने बताया कि यह कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन का प्रश्न नहीं, तो यह पूरे भारत की समस्या है। हिंदुओं को 1990 में कश्मीर में से क्यों निकाला गया ? क्या वो कोई दंगा कर रहे थे ? या उनके घर में हथियार थे ?
उन्हें केवल इसलिए वहां से निकल दिया गया कि वो ’हिन्दू´ हैं। आज यही समस्या भारत के विविध राज्यों में उभरनी शुरू हो गई है। इसलिए आज एक भारत अभियान की आवश्यकता है।
 पू. (डॉ) चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिती ने बताया कि जिस प्रकार महाभारत के काल में भगवान श्रीकृष्ण ने 5 गांव मांगे थे किंतु कौरवों ने वो भी देने से इन्कार कर दिया था , तदुपरांत महाभारत हुआ। उसी प्रकार आज कश्मीरी हिंदुओं के लिए पूरे भारत के हिन्दुत्वनिष्ठ और राष्ट्रप्रेमी संगठन पनून कश्मीर मांग रहे हैं, परंतु आज सरकार चुप है।

कश्मीर भारत माता का मुकुट है। कश्मीर भूभाग नहीं, कश्यप ऋषि की तपोभूमि है। वहां से हिंदुओं का पलायन हुआ है, परंतु उन्हाेंने हार नहीं मानी है । कश्मीर में पनून कश्मीर और भारत हिन्दू राष्ट्र बनने तक हम कार्य करते रहेंगे यह हमारा धर्मदायित्व है ।

अधिवक्ता श्रीमती चेतना शर्मा, हिन्दू स्वाभिमान, उत्तर प्रदेश – राजनैतिक दलों ने हर जगह जाति का नाम देकर हर मामले को राजनैतिक करने का प्रयास किया है। परंतु आज समय आ गया है कि जो स्थिति जैसी है, वैसा ही सत्य रूप दुनिया के सामने लाया जाए। जब भी, जहां भी जनसांख्यिकी बदली है, वहां कश्मीर बना है। अब उत्तर प्रदेश की भी स्थिति वैसी ही होना शुरु हो गई है। कैराना में जो हुआ, वही आज उत्तर प्रदेश के बाकी क्षेत्रों में भी होने लगा है। अब मात्र 10 वर्ष में या तो भारत हिन्दू राष्ट्र होगा , या हिन्दू विहीन राष्ट्र !


ट्वीटर भी लोगों ने दी प्रतिक्रिया!!

सुरयश ने लिखा कि जम्मू कश्मीर में मुस्लिम 68% है, फिर भी अल्पसंख्यक श्रेणी का खैरात दिया जा रहा है
सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण क्यों?

देवेंद्र कुमार ने लिखा कि #KashmiriPandits को कश्मीर छोड़े 26 साल हो गए। आज भी उनकी कसक ये है कि उनको लेकर राजनीति बहुत हुई, लेकिन उनकी घर वापसी का रास्ता नहीं बना।😢😥 

जीवैश्य लिखता है कि
#KashmiriPandits हम 19 जनवरी कभी नहीं भूलेंगे !भारत माता हम शर्मिन्दा है,कश्मीरी हिंदुओं के दोषी अब तक जिन्दा हैं!

भगवे वादल ने लिखा कि #KashmiriPandits विदेशी रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कश्मीर में जगह है,पर कश्मीरी हिंदू विस्थापितों के लिए नही? 


आपको बता दें कि 14 सितंबर, 1989 को बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुए आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया।

टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था। उस दौर के अधिकतर हिंदू नेताओं की हत्या कर दी गई। उसके बाद 300 से अधिक हिंदू-महिलाओ और पुरुषों की आतंकियों ने हत्या की।


केंद्र सरकार कब हिंदुओं के नाम से जाने वाले हिंदुस्तान में हिंदुओं को सुरक्षित करेगी ?

Wednesday, January 18, 2017

Todays Verdict in favor Salman Khan Proved that court is not for Poors

सलमान खान बरी होने से पहले ही सोशल मीडिया पर मचा था बवाल..!!!

सलमान खान के विरोध में जोधपुर कोर्ट में 18 वर्ष से अवैध तरीके से हथियार रखने का केस चल रहा था आज सलमान को 6 मिनट में कोर्ट ने बरी कर दिया।

जिसको लेकर सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली।

कई ट्वीटर यूजर कानून का मजाक उड़ा रहे थे और कई यूजरों ने तो पहले ही ट्वीट करना प्रारंभ कर दिया था कि देखना ब्रेकिंग न्यूज आने वाली है सलमान बरी होने की..!!

आइये जानते हैं कि सोशल मीडिया पर क्या प्रतिक्रिया दे रहे थे लोग...

Todays Verdict in favor Salman Khan Proved that court is not for Poors 

जागीरदार साहब कहते हैं कि
आज सलमान खान को कोर्ट द्वारा बरी किया जाना ये साबित करता है कि भारत में कोर्ट आदेश पालन दंड सिर्फ गरीब आम लोगों के लिये ही है ।

हार्दिक भावसार लिखते हैं कि सलमान खान इतनी जल्दी बरी हो गया,
जज साहब ने सुनवाई पर बुलाया था या सेल्फी लेने 
😎 अंधा कानून 😎

ज्योति गंभीर लिखती हैं कि जो कानून 80 वर्षीय निर्दोष संत आसारामजी बापू को जमानत के लिए भी तारीखें देता है वो सलमान खान को 5 मिनट में बरी कर देता है।
क्या सेटिंग है!


ज्योति गंभीर अपनी एक दूसरी ट्वीट में कहती हैं कि सलमान खान जी उन निर्दोषों को भी बताते जाओ कि कैसे बरी हुए जो सालों से न्याय की आस में सजा काट रहे हैं।

विकास कटेवा डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी को टैग करके कहते हैं कि
@Swamy39  सरजी,सलमान खान 18 साल पुराने जुर्म ना जेल ना बेल, 6 मिनट में बरी और निर्दोष हिन्दू बुजुर्ग संत @AsaramBapuJi  बेगुनाह होकर भी जेल में!

कृष्णत्रे कहते हैं कि सलमान खान बरी हो गए। ड्राईवर को भी कोई सजा नहीं मिली। मतलब साफ है कि पेट्रोल में ही दारू मिलाया गया था। गाड़ी नशे में थी🙄😜 😷😷


शालिनी उनको जवाब देते हुए कहती हैं कि
😂😂😂😂साथ में कानून व्यवस्था ने भी पी ली थी थोड़ी झूम बराबर झूम शराबी 😂😂😛😛


नीलेश मकवाना कहते हैं कि वो निर्दोष को बता गया है कि देशद्रोही ताकतों से हाथ मिलाओ खूप पैसा कमाओ न्याय खरीद ले जाओ। #ShameOnJudiciary

विशाल जी कहते हैं कि
सलमान खान बरी हो गया रे। ये तो होना ही था।न्यायालय को कितना पैसा मिला है क्या मालूम ?
निर्दोष संतों को बेल भी नहीं देते । सलमान खान बरी .....


विश्वजीत का कहना है कि यहां सब कुछ बिकता है
बस राजनैतिक पहुँच व दाम सही होना चाहिये
"सलमान एक बार फिर से बरी" गोली बेचारे हिरण ने स्वयं मार ली ?

कुलदीप कादयान का कहना है कि..
अच्छा हुआ सलमान खान बरी हो गया नहीं तो साला,आज पैसे और जुगाड़ से ही भरोसा उठ जाता.. 😂

वासु जी लिखते हैं कि अरे सल्लू भाई को छोड़ दिया,तो कहाँ रहा कुछ अवैध,कहाँ रहा अपराध पता है न कानून है ही अँधा,बन गया है धंधा भाई।

विनीत नैन लिखते हैं कि सबको पता है भाई बरी होके आएगा सलमान खान Jodhpur Court से। पतंग उड़ाने के भी आखिर कुछ फायदे हैं कि नही?😎
#Salman #SalmanVerdict #SalmanKhan

राजीव दुबे लिखते हैं कि
#भक्तो .. शर्त ले लो 
#सलमान खान बरी हो जायेगे 
सलमान #मोदीजी के जिगरी दोस्त जो हैं।

अमित जैन ने लिखा था कि ब्रेकिंग न्यूज आने वाली है......
सलमान खान आर्म्स एक्ट केस में बरी,अवैध हथियार,सलमान के नही,मरने वाले हिरन के पास था.....!
(जोधपुर कोर्ट)

दीपक मार्गवानी लिखते हैं कि हिरण मारा गोली से 
गाड़ी से इंसान ।।
कानून मारा पैसों से ।
मेरा भारत महान
https://twitter.com/deepak_mragwani/status/821709215320383490

इस तरीके से कई ट्वीटर यूजर कानून की खिल्ली उड़ा रहे थे और सलमान के  खिलाफ टिप्पणियाँ कर रहे थे।

गौरतलब है कि हमारे देश के हिन्दू संत जिसमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर 9 साल से, स्वामी असीमानन्द 7 साल से और संत आसारामजी बापू साढ़े 3 साल से क्लीन चिट मिलने पर और अभी तक एक भी आरोप सिद्ध न होने पर भी एक सामान्य जमानत के मौलिक अधिकार से भी न्यायालय द्वारा वंचित हैं । और न जाने कितने मासूम जेल में ही दम तोड़ देते हैं न्याय की आशा-आशा में ।

क्या सच में...

Our Judiciary System Is Biased & Disabled..?

Tuesday, January 17, 2017

सावधान : भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया द्वारा चल रहा बड़ा भारी षड़यंत्र !!

सावधान : भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया द्वारा चल रहा बड़ा भारी षड़यंत्र !!

फिल्म अभिनेता सलमान खान के विरोध में जोधपुर कोर्ट में 18 वर्ष से अवैध तरीके से हथियार रखने और उनसे शिकार करने को लेकर केस चल रहा है।

कल कोर्ट इस मामले में अपना फैसला सुनाएगा। फैसला सुनने के लिए सलमान खान को कोर्ट में हाजिर रहने का आदेश दिया गया है।
सावधान : भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया द्वारा चल रहा बड़ा भारी षड़यंत्र !!


अब एक बड़ा अहम सवाल है कि कोर्ट तो अपना काम कर रही है कोर्ट को जो फैसला सुनाना है वो सुनाएगी लेकिन मीडिया पहले से सलमान खान के लिए बड़े मानवाचक शब्दों का प्रयोग कर उसे निर्दोष दिखाने की भरपूर कोशिश करेगी ।

ये पहली बार नही हुआ है । हर बार ऐसा ही होता है पिछली बार भी सलमान को सजा सुनाने से पहले ही कोर्ट पर प्रभाव डालने के लिए उसे निर्दोष दिखाने का भरपूर प्रयास किया गया था जब कोर्ट ने सजा सुनाई थी तो मीडिया ऐसे विधवा विलाप करने लगी जैसे कोई उनके हितैषी की मृत्यु हो गई हो।


जब सलमान को जमानत मिल गई तो मीडिया जश्न मनाने लगी जैसे कोई उनका हितैषी मौत के मुख से वापिस आ गया हो ।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि केवल सलमान ही नही जब किसी आतंकवादी को भी सजा सुनाई जाती है तब भी मीडिया खूब छाती पीटकर रोने लगती है ।

पिछली बार आतंकवादी याकूब मेमन को फाँसी देनी थी तो मीडिया उसके बचाव में खड़ी हो गई और दिखाने लगी 
कि बेचारा मासूम है,
उसके बच्चों का क्या होगा?
बीबी का क्या होगा?
घर-परिवार का क्या होगा ? आदि आदि
 दिखाकर कोर्ट को प्रभावित कर रही थी और जनता में सहानुभूति का वातावरण बनाने की कोशिश कर रही थी ।

लेकिन जनता जानती है कि एक आतंकवादी की सजा क्या होनी चाहिए। जिसने एक नहीं कई परिवारों को मौत के घाट उतार दिया, कई महिलाओं के सुहाग छीन लिए , कई बच्चो को अनाथ कर दिया।
ऐसे आतंकवादियों के प्रति आखिर मीडिया सहानुभूति रखती क्यों है..???

एक तरफ मीडिया सलमान खान जैसे अभिनेता, याकूब मेनन जैसे आतंकी को मानवाचक शब्दों में संबोधित करती है दूसरी ओर मीडिया हिन्दू संतो के लिए तुच्छ शब्दों का प्रयोग करके उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश करती है ।

ऐसा क्यों..???

जब किसी नेता अभिनेता को सजा होती है तो भी मीडिया उनकी सजा माफ करवाने के लिए दिन-रात समाज के सामने उन्हें निर्दोष दिखाने का प्रयास कर कोर्ट को प्रभावित करती है ।

दूसरी ओर केवल आरोप लगने पर हिन्दू कार्यकताओं या हिन्दू संतों को न्यायिक हिरासत में रहने के बावजूद उनकी छवि को समाज के सामने धूमिल करती है और उनकी जमानत पर तो जानबूझ कर उनके खिलाफ जहर उगलती है । जिससे कोर्ट भी प्रभावित होकर, न्यायाधीश भी दवाब में आकर सामान्य जमानत तक भी नही दे पा रहे ।


ऐसे ही कई ताजा उदाहरण हैं।
जैसे बिना अपराध साध्वी प्रज्ञा ठाकुर 9 साल से जेल में, कर्नल पुरोहित 7 साल से, स्वामी असीमानंद 7 साल से, संत आसारामजी बापू साढ़े तीन साल से,नारायण साईं 3 साल से और धनंजय देसाई 2 साल से जेल में हैं ।

उनकी जमानत जब कोर्ट में डाली जाती है तब मीडिया उनके खिलाफ खूब जहर उगलती है जिसका परिणाम आता है कि इन हिन्दुत्वनिष्ठों को कोर्ट जमानत तक नहीं दे पाता ।

क्यों मीडिया की नजर में सिर्फ देश के हिन्दू संत ही दोषी हैं ?

क्यों मीडिया समाज तक सच्चाई नहीं पहुंचाती..???

इसका सही और सरल जवाब ये है कि भारतीय मीडिया विदेशी फण्ड से चलती है और उन्हीं के इशारों पर यहाँ काम करती है ।


हमारी भारतीय संस्कृति अति प्राचीन दिव्य और महान है । उस पर विदेशियों ने अनेक बार आक्रमण किये लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए हमेशा हिन्दू साधु-संतों एवं हिन्दू कार्यकताओं ने गांव-गांव नगर-नगर जाकर लोगों को जागृत किया जिससे हमारी दिव्य संस्कृति अभी भी जगमगा रही है ।

अब इसको तोड़ने के लिए उन्होंने नया तरीका अपनाया हिन्दू साधु-संतों को मीडिया द्वारा खूब बदनाम करो जिससे उनके प्रति भारतवासियों की श्रद्धा कम हो जाये और भारतवासियों का नैतिक पतन हो जाये और फिर से एक बार देश को गुलाम बनाया जा सके ।


विश्व हिन्दू परिषद के मुख्य संरक्षक व पूर्व अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वर्गीय श्री अशोक सिंघलजी कहते हैं : ‘‘मीडिया ट्रायल के पीछे कौन है ? हिन्दू धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के लिए मीडिया ट्रायल पश्चिम का एक बड़ा भारी षड़यंत्र है हमारे देश के भीतर ! 
मीडिया का उपयोग कर रहे हैं विदेश के लोग ! उसके लिए भारी मात्रा में फंड्स देते हैं, जिससे हिन्दू धर्म के खिलाफ देश के भीतर वातावरण पैदा हो ।’’ 
                   
कई न्यायविद् एवं प्रसिध्द हस्तियाँ भी मीडिया ट्रायल को न्याय व्यवस्था के लिए बाधक मानती हैं । 

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि : ‘‘मीडिया में दिखायी गयी खबरें न्यायाधीश के फैसलों पर असर डालती हैं । खबरों से न्यायाधीश पर दबाव बनता है और फैसलों का रुख भी बदल जाता है। पहले मीडिया अदालत में विचाराधीन मामलों में नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए खबरें नहीं दिखाती थी लेकिन अब नैतिकता को हवा में उड़ा दिया है।  मीडिया ट्रायल के जरिये दबाव बनाना न्यायाधीशों को प्रभावित करने की प्रवृत्ति है। जाने-अनजाने में एक दबाव बनता है और इसका असर आरोपियों और दोषियों की सजा पर पड़ता है ।’’

न्यायाधीश सुनील अम्बवानी ने भी बताया कि मीडिया के कारण न्यायाधीश सुपरविजन के प्रभाव में आ जाता है । मीडिया कई मामलों में पहले ही सही-गलत की राय बना चुका होता है । इससे न्यायाधीश पर दबाव बन जाता है । न्यायाधीश भी मानव है । वह भी इनसे प्रभावित होता है ।

अतः सावधान!!