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Wednesday, December 9, 2020

महिला सुरक्षा कानून का दुरुपयोग चरम सीमा पर...

 माना कि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए राष्ट्र व समाजहित में बलात्कार कानून की अत्यंत आवश्यकता है पर उसका उचित प्रयोग और पालन भी आवश्यक है। परंतु इस कानून में अनेकों अपभ्रंश है जिसे नकारा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे तथ्य भी सामने आ रहे हैं कि इस कानून का दुरुपयोग कर कई निर्दोष, सामाजिक, प्रतिष्ठासम्पन्न व्यक्तियों या सामान्य नागरिकों पर झूठे आरोप दर्ज करायें जा रहे हैं और आरोप मात्र से बिना किसी सबूत या जांच के जेल भेजने की कार्रवाई भी हो रही है। ऐसे कृत्य में असामाजिक तत्वों की संलिप्तता है जो रंजिशवश, बदले की भावना से या पैसे ऐंठने के लिए किसी निर्दोष पर झूठे आरोप लगाकर बेहिचक जेल की सजा दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। किसी निर्दोष को फंसाने में इन्हें कोई न शर्म महसूस होती है और न ही आत्मग्लानि होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना होता है।




बलात्कार कानून के अनियमितता एवं अपभ्रंशता पर स्वयं महिला जज निवेदिता शर्मा ने कहा है कि वर्तमान बलात्कार कानून में झूठे आरोपों में फंसे पुरुषों को भी बचाने का कोई प्रावधान नहीं है। और भी कई  कानून के जानकार, न्यायविद् एवं अधिवक्ताओं का मानना है कि वर्तमान बलात्कार कानून में अनेकों अनियमितताएँ हैं - यह कानून एकतरफा है।

किसी भी राष्ट्र में महिला एवं पुरुष समाज के अभिन्न अंग होते हैं। एक दूसरे के बिना सामाजिक विकास की कल्पना कपोल कल्पित है। महिला एवं पुरुष दोनों की अथक परिश्रम एवं योगदान से स्वस्थ, सुंदर एवं गौरवपूर्ण राष्ट्र का निर्माण होता है। यदि इस प्रकार बलात्कार कानून को एकतरफा बनाया गया है तो उसकी वजह से पुरुष वर्ग के साथ महा अन्याय एवं राष्ट्रीय विघटन की कल्पना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है।  कानून निर्माताओं से इस पहलू पर भूल क्यों हुआ कि जब किसी निर्दोष को बलात्कार कानून का मोहरा बनाया जाएगा तो उसके साथ उसका पूरा परिवार, रिश्तेदार सभी बिखर जाएंगे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी, उनके बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा आदि आदि...

इसी वर्तमान बलात्कार कानून की वजह से भारतीय संस्कृति की गरिमा की रक्षा करने वाले, देशहित में अनेकों महत्वपूर्ण योगदान देने वाले विश्व सुप्रसिद्ध संत श्री आशाराम जी बापू पर मिथ्या आरोप लगाकर उनको कारावास में डाला गया है जबकि उन्हें मेडिकल रिपोर्ट में क्लीनचिट मिली हुई है एवं उनके निर्दोषिता के अनेक प्रमाणित सबूत न्यायालय में पेश किए गए हैं फिर भी 7+ वर्ष हो गए अभी तक उन्हें उचित न्याय नही दिया जा रहा है न ही जेल से मुक्त किया जा रहा है। इसी प्रकार स्वामी नित्यानंद जी, कृपालु जी महाराज एवं नामी-अनामी कई निर्दोषों को भी मिथ्या आरोप में कानूनी यातनाएं सहनी पड़ी है। 

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर भी यौन शोषण का आरोप लगा था हालांकि विशेष सेलिब्रिटी एवं राष्ट्रीय गरिमा को देखते हुए साजिश है कहकर उनका केस खारिज कर दिया गया। अब प्रश्न यह है उठता है कि जब कोई जज जैसे विशेष सेलिब्रिटी पर आरोप लगता है तो साजिश है कहकर केस खारिज कर दिया जाता है तो फिर करोड़ों लोगों को धर्म के मार्ग पर प्रशस्त कर व्यसन छुड़ाने वाले उनके जीवन में आशातीत परिवर्तन लाकर सच्चाई के मार्ग पर चलाने वाले निर्दोष संतो के मामले में न्याय व्यवस्था की उत्तरदायित्व रखने वाले अर्थात न्याय व्यवस्था संचालन करने वालों की कदाचित निष्क्रियता आखिर क्यों?

इन सब कारणों का अवलोकन करने से राष्ट्र की गरिमा को सुदृढ़ करने एवं राष्ट्रहितैषी सन्तों की रक्षा करने हेतु एक तथ्य सामने आ रहा है कि वर्तमान एकतरफा बलात्कार कानून पर आवश्यक संशोधन के साथ देश में पुरुष आयोग की स्थापना एकमात्र विकल्प है।

बसन्त कुमार मानिकपुरी 
स्थान - पाली (कोरबा)
छत्तीसगढ़

Wednesday, December 2, 2020

धर्मांतरण पर रोक कानून को पूरे देश में लागू किया जाए

02 दिसंबर 2020


धर्म के संस्कार नहीं होने के कारण कुछ युवतियां सेक्युलर बन जाती हैं और कोई उनसे धर्म की बात करे तो अपने को मॉर्डन बताकर उनसे नफरत करती हैं जिसके कारण वे लव जिहाद में फस जाती हैं और बाद में अपनी जिंदगी नरक जैसी जीती रहती हैं, पुलिस अथवा न्यायालय में शिकायत करती हैं पर तब तक अपनी जिंदगी तबाह हो गई होती है। ऐसा ही एक ताजा मामला है, पढ़ लीजिये।




मेरा नाम कमालरुख खान है। मैं दिवंगत संगीतकार वाजिद खान की पत्नी हूँ। विवाह से पहले मैंने और साजिद ने दस साल एक दूसरे के साथ बिताये था। आप हमें कॉलेज स्वीटहार्ट कह सकते हैं। मैं पारसी थी और वो मुस्लिम थे। हम दोनों ने स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत विवाह किया था। यही वह कारण है जिसकी वजह से वर्तमान में चल रही धर्मांतरण की बहस मेरे लिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

मैं आपके साथ अपना अनुभव इसलिए बांटना चाहती हूँ कि मजहब के नाम पर एक औरत के साथ किस तरह भेदभाव, दमन और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। एक स्त्री के सम्मान के लिए ये अपमानजनक, निंदनीय और आंख खोलनेवाला है।

मेरे सामान्य पारसी परिवार का पालन पोषण बहुत लोकतांत्रिक मूल्यों वाला था। वैचारिक स्वतंत्रता को बढावा दिया जाता था और लोकतांत्रिक बहसें सामान्य सी बात थी। हर स्तर पर शिक्षा का महत्व सर्वोपरि होता था लेकिन मेरी शादी के बाद यही वैचारिक स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक जीवन मूल्य और शिक्षा मेरे पति के लिए सबसे बड़ी समस्या थी। एक पढी लिखी लड़की जो वैचारिक स्वतंत्रता रखती हो, उनके परिवार को कतई स्वीकार नहीं थी। इस्लाम कबूल न करने का विरोध तो सबसे अपवित्र कार्य साबित हुआ। मैं हमेशा सभी धर्मों का सम्मान करती हूँ और उनके सभी धार्मिक आयोजनों में शामिल भी होती थी लेकिन मेरे ऊपर धर्मांतरण का दबाव लगातार बढता जा रहा था और ये दबाव यहां तक बढा कि मुझे तलाक के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी। मेरा आत्मसम्मान मुझे उनके या उनके परिवार के लिए इसकी (इस्लाम कबूल करने की) अनुमति नहीं दे रहा था।

मैं जिन मूल्यों में विश्वास करती हूँ उसमें धर्म परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं है। न ही मैं अपनी 16 वर्षीय बेटी अर्शी और 9 वर्षीय बेटे ह्रेहान में ये संस्कार डालना चाहती हूँ। लेकिन अपनी शादी के बाद मैंने नख शिख इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी है। इसका परिणाम ये हुआ कि मेरे ससुरालवालों ने मेरे खिलाफ एक से एक डरावने तरीके इस्तेमाल किये ताकि मैं इस्लाम कबूल कर लूं।

वाजिद एक सुपर टैलेन्टेड संगीतकार थे जिन्होंने एक से एक सुरीली धुनों की रचना की। मैं और मेरे बच्चे आज भी उनको मिस करते हैं। काश वो हमारे साथ कुछ समय और रहते। लेकिन धार्मिक पूर्वाग्रहों के कारण मैं और मेरे बच्चे कभी उनके परिवार की तरह उनकी संगीत रचना का हिस्सा न बन सके।

लेकिन मैंने लड़ाई लड़ी। लड़ाई जीवन मूल्यों की और लड़ाई अपने बच्चों के भविष्य की। ये लड़ाई मुझे सिर्फ इसलिए लड़नी पड़ी क्योंकि वो लोग मुझसे सिर्फ इसलिए नफरत करते थे क्योंकि मैंने इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया। ये नफरत इतनी गहरी है कि वाजिद की मौत के बाद भी खत्म नहीं हुई है। दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिवार की ओर से मेरी प्रताड़ना जारी है।

मैं दिल से चाहती हूँ कि ये एन्टी कन्वर्जन लॉ पूरे देश में लागू किया जाए ताकि अंतर्धामिक विवाहों में स्त्री के प्रेम और आत्मसम्मान की रक्षा हो सके। हमें अपनी जमीन पर खड़े होने के लिए बदनाम किया जाता है। ये धर्मांतरण माफिया बहुत शुरुआत से ही अपनी व्यूह रचना करते हैं जो ये कहते हैं कि सिर्फ उन्हीं का गॉड/प्रॉफेट सच्चा है बाकी अन्य दूसरे सभी भगवान झूठ हैं। धर्म उत्सव के लिए होता है लोगों और परिवारों को तोड़ने के लिए नहीं।

यह सब देखते हुए अब हिंदुओं को जागरूक होने की अत्यंत आवश्यकता है सबसे पहले अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा दे, अच्छे संस्कार दे , टीवी सिनेमा से दूर रखें, उनका मोबाइल चेक करते रहे जिससे बच्चे अपनी जिंदगी बर्बाद न कर ले नहीं तो यही बच्चे बड़े होकर आपको ही गालियां देंगे, बच्चों का भी कर्तव्य है कि अपने माँ-बाप बात माने नही तो आगे पछताना पड़ेगा।

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Saturday, November 28, 2020

जानिए धर्मांतरण रोकने के लिए देर से बने कानून कितने दुरुस्त?

28 नवंबर 2020


बराबरी का अधिकार संविधान ही छीन लेता है। जब अनुच्छेद 25(1) में कहा जाता है कि “सभी लोग”, ध्यान दीजिये, सभी लोग, सिर्फ “भारतीय नागरिक” नहीं, कोई भी अपने पंथ को मानने, उसका अभ्यास करने और उसके प्रचार के लिए स्वतंत्र है तो ये भारत में बाहर कहीं से आकर धर्म प्रचार करने वाले प्रचारकों को अनैतिक छूट देना ही है।




विश्व में जहाँ कोई भी हिन्दुओं का, ईरान से भगाए गए विस्थापितों का, बहाई समुदाय का, सिखों का, जैनियों का कोई देश है ही नहीं, वहाँ ऐसी छूट का मतलब क्या है ? सीधी सी बात है विदेशी प्रचारकों के पास जहाँ कई-कई देशों का खुला समर्थन है वो बेहतर स्थिति में आ जाएँगे और भारत में बसने वाले कई दबे-कुचले समुदाय हाशिए पर धकेल दिए जाएँगे। प्रचारकों के पास देशों की अर्थव्यवस्था का समर्थन होगा और हाशिए पर के इन समुदायों के पास सिर्फ आत्मरक्षा की नैतिक जिम्मेदारी। हमलावरों के खिलाफ ये लड़ाई कभी बराबर की तो थी ही नहीं!

केंद्र में ज्यादातर कांग्रेस का शासन रहा है, कई राज्य भी लगातार कांग्रेस शासित रहे हैं। धर्म परिवर्तन पर चर्चा तो काफी पहले, संविधान बनते समय ही शुरू हो गई थी, मगर जबरन धर्म परिवर्तन पर कांग्रेस ने नियम-कानून आश्चर्यजनक रूप से पचास साल तक नहीं बनाए थे। धर्म और रिलिजन पर संविधान सभा की बैठकों में इस परिवर्तन के बाबत चर्चाएँ हो रही थी (6 दिसम्बर, 1949)। इस दिन चर्चा करते हुए पंडित लक्ष्मी कान्त मिश्रा ने कहा था कि भारत में अभी रिलिजन ज्यादा से ज्यादा अज्ञान, गरीबी और महत्वाकांक्षा को कट्टरपंथ के झंडे तले भुनाने का तरीका है। उनकी सलाह थी कि अपनी रिलीजियस-मजहबी आबादी को बढ़ा कर उसका राजनैतिक लाभ उठाने का मौका किसी को नहीं दिया जाना चाहिए।

ध्यान रहे कि ये दिसंबर 1949 की चर्चा है। उनके तुरंत बाद बोलते हुए एच.वी. कामथ ने कहा था कि सरकार किसी रिलिजन को अनैतिक लाभ ना दे, लेकिन उसके काम से किसी के अपने धर्म के प्रचार-प्रसार और अभ्यास में दिक्कत भी नहीं आनी चाहिए। उन्होंने “रिलिजन” के “वास्तविक अर्थ” की बात करते हुए ये बताने की कोशिश की थी कि कैसे “धर्म” वास्तविक अर्थों में धार्मिकता की सही परिभाषा देता है। धर्म परिवर्तन के मामले में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाओं में रहे ग्राहम स्टेंस नाम के मिशनरी की हत्या का मामला देखें तो भी इस सम्बन्ध में कई बातें खुलेंगी। इस मामले का फैसला सुनाते हुए जस्टिस पी.सदाशिवम लिखते हैं, “ये निर्विवाद सत्य है कि किसी और की आस्थाओं में दखलंदाजी, किसी भी किस्म का बल प्रयोग, उकसावे, लालच, या इस वहम में कि उसका मजहब, दूसरे के मजहब से बेहतर है, सरासर गलत है।” इसके अलावा यही बात चीफ़ जस्टिस ए.एन.रे भी रेवरेंड स्टेनिस्लौस बनाम मध्य प्रदेश सरकार के मुक़दमे में कर चुके हैं। इस मुक़दमे में 1960 के दौर के दो कानूनों, मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम और ओडिशा फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट को संवैधानिक माना गया था, जिसे इसाई मिशनरी अपने काम में एक बड़ी बाधा मानते हैं।

अदालतों ने बार-बार ये स्पष्ट किया है कि आपको अपने पंथ-मजहब के प्रचार का अधिकार तो है, लेकिन किसी भी तरह से धर्म परिवर्तन करवाने को मौलिक अधिकार नहीं कहा जा सकता। राज्यों के स्थानीय नियम देखें तो जबरन धर्म परिवर्तन को भारतीय दंड संहिता की धारा 295A और 298 में संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इन प्रावधानों की वजह से इस धूर्ततापूर्ण और जान-बूझकर दूसरों की भावना को ठेस पहुँचाने वाली हरकत को दंडात्मक अपराध माना गया है।

आजादी के पहले बनाए गए, राजाओं के ज़माने के कानून देखें तो रायगढ़ स्टेट कन्वर्शन एक्ट (1936), पटना फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट (1942), सरगुजा स्टेट अपोस्टेसी एक्ट (1945) या उदयपुर स्टेट एंटी कन्वर्शन एक्ट (1946) वगैरह में धोखे से या लालच देकर ईसाई बनाए जाने के खिलाफ कम और ईसाइयों के प्रति होने वाली हिंसा के कानून ज्यादा हैं।

पक्षपातपूर्ण रवैए से काफी नुकसान होने के बाद जब हिन्दुओं ने आवाज उठानी शुरू की तब, आजादी के कई साल बाद, धार्मिक आजादी से सम्बंधित विधेयकों को जगह मिली है । अरुणाचल प्रदेश में 1978 में धार्मिक स्वतंत्रता सम्बन्धी विधेयक आया और गुजरात में ये 2003 में आया ।

हिमाचल प्रदेश फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट (2006) के साथ हिमाचल प्रदेश जबरन धर्म परिवर्तन रोकने का प्रयास करने वाला पहला कॉन्ग्रेस शासित राज्य बना।छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी नियमों में संशोधन कर के 2006 में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास तीस दिनों में धर्म परिवर्तन की सूचना देने का नियम लागू किया गया। https://twitter.com/OpIndia_in/status/1332489387104407553?s=19

मगर इतने दिनों की देर के बाद अब पहला सवाल तो ये है कि जिस विषय में संविधान निर्माताओं को 1949 से पता था, उस पर कानून बनाने में नेताओं ने इतनी देर आखिर की क्यों? फिर सवाल ये भी है कि अब जब ये नियम बनने शुरू भी हुए हैं तो क्या ये काफी हैं, या हमें बहुत देर से और बहुत थोड़ा देकर बहलाया जा रहा है?

गांधीजी कहते थे कि "हमें गोमांस भक्षण और शराब पीने की छूट देने वाला ईसाई धर्म नहीं चाहिए। धर्म परिवर्तन वह ज़हर है जो सत्य और व्यक्ति की जड़ों को खोखला कर देता है।

जनता की मांग है कि पूरे देश में धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए।

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Friday, September 4, 2020

ये कौनसा कानून है? नेता को बेल और संतों को जेल?

04 सितंबर 2020


तथाकथित बुद्धिजीवियों के एक बहुत बड़े वर्ग से सुनने को मिलता है कि "कानून अपना काम कर रहा है", "कानून सबके लिए समान है" , लेकिन वास्तव में क्या कानून सबके लिए एक है कि नहीं या क़ानून के रखवालें केवल समान बोलतें ही हैं कि उसका पालन भी करते हैं या नहीं, यह आपको जानना चाहिए।




आपको बता दें कि अखिलेश यादव सरकार में मंत्री रहे सामूहिक दुष्कर्म के मामले में जेल में बंद गायत्री प्रसाद प्रजापति को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने जमानत दे दी है। लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में भर्ती गायत्री प्रसाद प्रजापति ने कोरोना वायरस संक्रमण का हवाला देकर जमानत की याचिका दायर की थी। गायत्री प्रसाद प्रजापति 15 मार्च, 2017 से जेल में है। गायत्री प्रसाद प्रजापति के खिलाफ लखनऊ के गौतमपल्ली पुलिस स्टेशन में नाबालिग के साथ सामूहिक दुष्कर्म का मामला दर्ज है और उन पर पॉक्सो एक्ट भी है और कोर्ट ने इसी केस में प्रजापति को दो महीने की अंतरिम जमानत की मंजूरी दी है।

आपको यह भी बता दें कि जोधपुर जेल में 7 साल से बंद 85 वर्षीय हिंदू संत आशारामजी बापू को आज तक एक दिन भी जमानत नही दी गई जबकि उनकी धर्मपत्नी को हार्ट अटैक भी आया था उनके परिवार में 1-2 लोगों की मृत्यु भी हुई और उनकी उम्र भी ज्यादा है उनका स्वास्थ्य भी कई बार खराब हुआ है और कोरोना का खतरा सबसे ज्यादा अधिक उम्र वालों को होता है और जोधपुर जेल में कई कैदी कोरोना पोजेटिव भी पाए गए फिर भी उनकी सुनवाई नही हो रही हैं और सपा नेता को तुरंत जमानत दे दी इसके कारण आम जनता का भी कानून से भरोसा उठ रहा है।

जाकिर नाईक एवं मौलाना साद फरार और न्यायालय चुप रहता है पर हिंदू संतों को आधी रात में गिरफ्तार करने का आदेश देता है। इमाम बुखारी पर कई गैर जमानती वारंट हैं पर उसको गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं है।

बता दें कि जब किसी नेता, अभिनेता, जज या पत्रकार अथवा मुस्लिम और इसाई धर्मगुरु आदि पर आरोप लगते हैं तब सभी बुद्धजीवी बोलतें हैं कि जांच चल रही है, कानून अपना काम कर रहा है, कानून सबके लिए समान है आदि-आदि, लेकिन जैसे ही किसी हिंदुनिष्ठ या हिंदू साधु-संत पर झुठे आरोप लगते हैं तो सभी बोलने लग जाते हैं कि आरोपी पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं, फिर भी गिरफ्तारी नहीं हो रही है, ये शर्मनाक बात है आदि-आदि, कुछ इस तरह के नारे लगते हैं और उनको आधी रात में गिरफ्तार कर लिया जाता है और सालों तक जमानत भी नहीं दी जाती है।

जैसे कि शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी पर हत्या का आरोप लगा और उनको आधी रात में गिरफ्तार कर लिया गया फिर वे बाद में निर्दोष बरी हुए।

वैसे साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, स्वामी असीमानंद, स्वामी नित्यानंद, डीजी वंजारा जी आदि को भी सालों तक जेल में प्रताड़ित किया गया और आखिर में निर्दोष बरी हुए।

अभी वर्तमान में हिंदू संत आसाराम बापू का केस तो आप देख ही रहे हैं, उनके पास षडयंत्र के तहत फ़साने और निर्दोष होने के प्रमाण भी हैं फिर भी उनको जमानत नही दी जा रही है।

दूसरी ओर सलमान खान को सजा होने के बाद भी 1 घण्टे में ही जमानत मिल जाती है, संजय दत्त को बार-बार पेरोल मिल जाती है, लालू को सजा होने के बाद बेटे की शादी में जाने के लिए जमानत मिल जाती है, पत्रकार तरुण तेजपाल पर आरोप सिद्ध होने के बाद भी जमानत मिल जाती है, बिशप फ्रैंको को 21 दिन में जमानत मिल जाती है, इससे साफ सिद्ध होता है कि कानून केवल समान बोला जा रहा है पर कानून व्यवस्था देखने वाले समानता का व्यवहार नहीं कर रहे हैं।

कानून के हाथ भले ही लम्बे हों परन्तु लगता है कि नीति बहुत ही पक्षपाती है। देश में कई ऐसे कैदी हैं जिनके पास वकील रखने व जमानत लेने के पैसे नहीं हैं इसलिए जेल में सड़ रहे हैं, वे बाहर नहीं आ पा रहे हैं। किसी साधु-संत अथवा आम आदमी पर आरोप लगते ही गिरफ्तार कर लिया जाता है पर बड़े नेता-अभिनेता, अमीर आदि को गिरफ्तारी से पहले ही जमानत हासिल हो जाती है।

इन सब बातों से साफ पता चलता है कि कानून समान बोला जा रहा है पर उसका पालन नहीं हो रहा है इससे हिंदुनिष्ठ और आम जनता को न्याय नहीं मिल पा रहा है, यह जनता के लिए दुःखद बात है इस पर सरकार और न्यायालय को ठोस कदम उठाना चाहिए नहीं निर्दोष पीड़ित होते ही रहेंगे।

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Monday, May 11, 2020

सुप्रीम कोर्ट के जज बोले अमीरों की मुट्ठी में कैद है कानून और न्याय व्यवस्था

11 मई 2020

🚩वर्तमान न्याय प्रणाली हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है। गांधीजी ने कहा था, 'यह प्रणाली अंग्रेजों ने नेटिव इंडियंस (मूलनिवासी भारतीयों) को न्याय देने के लिए प्रस्थापित नहीं की थी, बल्कि अपना साम्राज्य मजबूत करने के लिए इस न्याय प्रणाली का गठन किया गया था। इस न्याय प्रणाली में 'स्वदेशी' कुछ भी नहीं है। इसकी भाषा, पोशाक तथा चिंतन सब कुछ विदेशी है। अतीत में भारत में जो न्याय दिलाने वाली संस्थाएँ विद्यमान थीं, उन्हें पूर्णत: समाप्त कर एक केंद्रीभूत तथा सर्वव्यापी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों ने स्थापित की। गांधीजी ने यह भी कहा था, 'जिसकी थैली बड़ी होगी, उसी को यह न्याय प्रणाली सुहाती है।'

🚩इस न्यायव्यवस्था के कारण हमारी न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इतना व्याप्त है कि गरीब और हिन्दूनिष्ठ निर्दोष को जल्दी न्याय ही नही मिल पाता है।

🚩आपको बता दे कि सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपनी नौकरी के अंतिम दिन विदाई भाषण में न्यायप्रणाली पर तीखी टिप्पणी की। बुधवार (06 मई) को सुप्रीम कोर्ट बार काउंसिल द्वारा आयोजित वर्चुअल फेयरवेल पार्टी में जस्टिस गुप्ता ने कहा कि देश का कानून और न्याय तंत्र चंद अमीरों और ताकतवर लोगों की मुट्ठी में कैद में है। उन्होंने कहा, “यदि कोई व्यक्ति जो अमीर और शक्तिशाली है, वह सलाखों के पीछे है, तो वह मुकदमे की पेंडेंसी के दौरान बार-बार उच्चतर न्यायालयों में अपील करेगा, जब तक कि किसी दिन वह यह आदेश हासिल नहीं कर लेता कि उसके मामले का ट्रायल तेजी से किया जाना चाहिए।” उन्होंने कहा, “वर्तमान समय और दौर में न्यायाधीश इससे अनजान होकर ‘आइवरी टॉवर’ में नहीं रह सकते कि उनके आसपास की दुनिया में क्या हो रहा है? उन्हें इसके बारे में जरूर पता होना चाहिए।”

🚩जस्टिस गुप्ता ने कहा, ऐसा, गरीब प्रतिवादियों की कीमत पर होता है, जिनके मुकदमे में और देरी होती जाती है क्योंकि वह धन के अभाव में उच्चतर न्यायालयों का दरवाजा नहीं खटखटा सकते। जस्टिस गुप्ता यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा, “अगर कोई अमीर शख्स जमानत पर है और वह मुकदमे को लटकाना चाहता है तब भी वह उच्चतर न्यायालयों का दरवाजा खटखटाकर, मामले का ट्रायल या पूरी सुनवाई प्रक्रिया तब तक बार-बार लटकाएगा, जब तक कि विपक्षी पार्टी परेशान न हो जाय।”

🚩जस्टिस गुप्ता ने जोर देकर कहा कि ऐसी स्थिति में बेंच और बार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो समाज के वंचितों और गरीबों को न्याय दिलाने में मदद करें। वो इस बात पर नजर रखें कि कहीं गरीबी की वजह से उनके मुकदमे पेंडिंग बॉक्स में पड़े न रह जाएं। उन्होंने कहा, “यदि वास्तविक न्याय किया जाना है, तो न्याय के तराजू को वंचितों के पक्ष में तौलना होगा।”

🚩जस्टिस गुप्ता ने कहा, “बार को पूरी तरह से स्वतंत्र होना चाहिए…और अदालतों में मामलों पर बहस करते समय बार के सदस्यों को अपनी राजनीतिक या अन्य संबद्धताओं को छोड़ देना चाहिए और मामले की पैरवी कानून के अनुसार सख्ती से करनी चाहिए।”

🚩आपको बता दे कि यह कोई पहले जज नही है जिन्होंने न्यायपालिका पर सवाल उठाया हो इससे पहले भी कई न्यायाधीशों ने इसपर सवाल उठाए है।

🚩सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश काटजू ने कहा था कि भारतीय न्याय प्रणाली में 50% जज भ्रष्ट है।

🚩सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश संतोष हेगड़े भी सवाल उठा चुके है कि ‘धनी और प्रभावशाली’ तुरंत जमानत हासिल कर सकते हैं। गरीबों के लिए कोई न्याय की व्यवस्था नही है।

🚩कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस के एल मंजूनाथ ने कहा कि यहाँ सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए कोई स्थान नहीं है और इस देश में न्याय के लिए कोई जगह नहीं।

🚩राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी कहा है कि देश में निर्णय देने में विलंब होना चिंता की बात है। समाज में सबसे गरीब और सबसे वंचित लोग न्याय में देरी के पीड़ितों में शामिल हैं। उन्होंने केस को जल्द निपटाने के लिए एक तंत्र बनाने की जरूरत हैं।

🚩देश में न्याय इसलिए देरी से मिलता है कि देश में जजों की कमी, वकीलों द्वारा पैसे ऐठने के कारण लंबा खीचना, बदला लेने या, पैसा नोचने की नीयत से झूठे केस दर्ज करना, और देश के जजों में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है कि अपराधियों को सजा और निर्दोषों को न्याय मिलना ही मुश्किल हो गया है। कई जज तो रिश्वत लेते पकड़े भी गये है।

🚩आज कोर्ट में देखो तो सामान्य आदमी ही आता है, धनी और प्रभावशाली व्यक्ति तो कोर्ट में मुद्दत पर आते ही नही है, गरीबों से वकील पैसे नोचते रहते हैं और न्यायालय से न्याय नहीं मिलता है, मिलती है तो सिर्फ तारीख...।

🚩नेता, अभिनेता, पत्रकारों, अमीरों को तो न्याय मिल जाता है लेकिन हिंदुत्वनिष्ठों और गरीबों को जल्दी न्याय नही मिल पाता है।

🚩इसलिये आज न्याय प्रणाली से देश की जनता का भरोसा उठ गया है, इसमे शीध्र सुधार करना चाहिए नही तो एक के बाद एक निर्दोष परेशान होते जायेंगे।


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