गुरु गोविंद सिंह जयंती - 5 जनवरी 2016
सिख समुदाय के दसवें धर्म-गुरु (सतगुरु) गोविंद सिंह जी का जन्म पौष शुदि सप्तमी संवत 1723 (22 दिसंबर, 1666) को हुआ था । उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था।
उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक संत थे।
सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की । जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
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गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया।
उन्होंने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
गुरु गोविंद सिंह जो विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म!!
प्राग राज के निवास समय श्री गोबिंद राय जी के जन्म से एक दिन पहले माता नानकी जी ने स्वाभाविक श्री गुरु तेग बहादुर जी (Shri Guru Tek Bahadar Ji) को कहा कि बेटा! आप जी के पिता ने एक बार मुझे वचन दिया था कि तेरे घर तलवार का धनी बड़ा प्रतापी शूरवीर पोत्र ईश्वर का अवतार होगा । मैं उनके वचनों को याद करके प्रतीक्षा कर रही हूँ कि आपके पुत्र का मुँह मैं कब देखूँगी !
बेटा जी! मेरी यह मुराद पूरी करो, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो ।
अपनी माता जी के यह मीठे वचन सुनकर गुरु जी ने वचन किया कि माता जी! आप जी का मनोरथ पूरा करना अकाल पुरख के हाथ मैं है । हमें भरोसा है कि आप के घर तेज प्रतापी ब्रह्मज्ञानी पोत्र देंगे ।
गुरु जी के ऐसे आशावादी वचन सुनकर माता जी बहुत प्रसन्न हुए । माता जी के मनोरथ को पूरा करने के लिए गुरु जी नित्य प्रति प्रातकाल त्रिवेणी स्नान करके अंतर्ध्यान हो कर वृति जोड़ कर बैठ जाते व पुत्र प्राप्ति के लिए अकाल पुरुष की आराधना करते ।
गुरु जी की नित्य आराधना और याचना अकाल पुरख के दरबार में स्वीकार हो गई। उसने हेमकुंट के महा तपस्वी दुष्ट दमन को आप जी के घर माता गुजरी जी के गर्भ में जन्म लेने कि आज्ञा की । जिसे स्वीकार करके श्री दमन (दसमेश) जी ने अपनी माता गुजरी जी के गर्भ में आकर प्रवेश किया ।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 22 दिसम्बर 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उन्होंने बचपन में फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा।
गुरु गोबिंद सिंह जी का विवाह सुंदरी जी से 11 साल की उम्र में 1677 में हुआ। उनके चार पुत्र साहिबजादा अजीत सिंह, जूझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह थे ।
गुरु गोबिन्द सिंह मार्ग!!
अप्रैल 1685 में, सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया । सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये । मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुये। मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा मे बहुत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की।
सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओं को हरा दिया था । विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।
भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया । वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये ।
1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा । मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।
खालसा पंथ की स्थापना!!
गुरु गोबिंद सिंह जी का नतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया रंग ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो कि सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।
सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा – कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राजी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पूछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राजी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छटवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने क शब्द के पांच महत्व खालसा के लिए समझाये और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।
गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थी!!
21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 लड़के हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह ।
4अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह।
15अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनकी कोई संतान नहीं थी पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।
यह कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह ने कुल चौदह युद्ध लड़े परन्तु कभी भी किसी पूजा के स्थल के लोगों को ना ही बंदी बनाया या क्षतिग्रस्त किया।
भंगानी का युद्ध Battle of Bhangani (1688)नादौन का युद्ध Battle of Nadaun (1691)गुलेर का युद्ध Battle of Guler (1696)आनंदपुर का पहला युद्ध First Battle of Anandpur (1700)आनंदपुर साहिब का युद्ध Battle of Anandpur Sahib (1701)निर्मोहगढ़ का युद्ध Battle of Nirmohgarh (1702)बसोली का युद्ध Battle of Basoli (1702)आनंदपुर का युद्ध Battle of Anandpur (1704)सरसा का युद्ध Battle of Sarsa (1704)चमकौर का युद्ध Battle of Chamkaur (1704)मुक्तसर का युद्ध Battle of Muktsar (1705)
परिवार के लोगों की मृत्यु!!
कहा जाता है कि सिरहिन्द के मुस्लिम गवर्नर ने गुरु गोबिंद सिंह के माता और दो पुत्र को बंदी बना लिया था। जब उनके दोनों पुत्रों ने इस्लाम धर्म को कुबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें जिन्दा दफना दिया गया। अपने पोतों के मृत्यु के दुःख को ना सह सकने के कारण माता गुजरी भी ज्यादा दिन तक जीवित ना रह सकी और जल्द ही उनकी मृत्यु हो गयी। मुगल सेना के साथ युद्ध करते समय 1704 में उनके दोनों बड़े बेटों की मृत्यु हो गयी।
जफरनामा!!
गुरु गोबिंद सिंह ने जब देखा कि मुगल सेना ने गलत तरीके से युद्ध किया है और क्रूर तरीके से उनके पुत्रों का हत्या कर दी है तो हथियार डाल देने के बजाये गुरु गोबिंद सिंग ने औरंगजेब को एक जीत पत्र “जफरनामा” जारी किया। बाद में मुक्तसर, पंजाब में दोबारा गुरु जी ने स्थापित किया और अदि ग्रन्थ Adi Granth के नए अध्याय को बनाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया जो पांचवें सिख गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है।
उन्होंने अपने लेखन का एक संग्रह बनाया है जिसको नाम दिया दसम ग्रन्थ Dasam Granth और अपनी स्वयं की आत्मकथा जिसका नाम रखा है बिचित्र नाटक Bicitra Natak.
अन्तिम समय!!
एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिंद सिंह जी के छाती में दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 18 अक्टूबर, 1708 को 42 वर्ष की आयु में नान्देड में अपना नश्वर देह त्याग दिया ।
आओ सब मिलकर ऐसी दिव्य विभूति गुरु गोविंद सिंह की जयंती पर उन्हें शत शत नमन करें ।