Sunday, December 27, 2020

दलित और मुस्लिम एकता की जमीनी हकीकत कितनी है?

27 दिसंबर 2020

  
आजकल देश में दलित राजनीति की चर्चा जोरों पर है।  इसका मुख्य कारण नेताओं द्वारा दलितों का हित करना नहीं अपितु उन्हें एक वोट बैंक के रूप में देखना हैं। इसीलिए हर राजनीतिक पार्टी दलितों को लुभाने की कोशिश करती दिखती है। अपने आपको सेक्युलर कहलाने वाले कुछ नेताओं ने एक नया जुमला उछाला है। यह जुमला है दलित मुस्लिम एकता। इन नेताओं ने यह सोचा कि दलितों और मुस्लिमों के वोट बैंक को संयुक्त कर दे तो 35 से 50 प्रतिशत वोट बैंक आसानी से बन जायेगा और उनकी जीत सुनिश्चित हो जाएगी। जबकि सत्य विपरीत है। दलितों और मुस्लिमों का वोट बैंक बनना असंभव हैं। क्योंकि जमीनी स्तर पर दलित हिन्दू समाज सदियों से मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा प्रताड़ित होता आया है।




1. मुसलमानों ने दलितों को मैला ढोने के लिए बाध्य किया

भारत देश में मैला ढोने की कुप्रथा कभी नहीं थी। मुस्लिम समाज में बुर्के का प्रचलन था। इसलिए घरों से शौच उठाने के लिए हिंदुओं विशेष रूप से दलितों को मैला ढोने के लिए बाधित किया गया। जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। वह इस अत्याचार से छूट जाता था। धर्म स्वाभिमानी दलित हिंदुओं ने अमानवीय अत्याचार के रूप में मैला ढोना स्वीकार किया। मगर अपने पूर्वजों का धर्म नहीं छोड़ा। इनमें अनेक हिन्दू राजपूत भी थे। फिर भी अनेक दलित प्रलोभन और दबाव के चलते मुसलमान बन गए।
(सन्दर्भ- स्वामी श्रद्धानंद जी का लेख, उर्दू तेज़ समाचारपत्र, पृष्ठ 5, 5 मई 1924 )

2. इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी दलितों को बराबरी का दर्जा नहीं मिला।

दलितों को  इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी बराबरी का दर्जा नहीं मिला। इसका मुख्य कारण इस्लामिक भेदभाव था। डॉ. अम्बेडकर इस्लाम में प्रचलित जातिवाद से भली प्रकार से परिचित थे। वे जानते थे कि मुस्लिम समाज में अरब में पैदा हुए मुस्लिम (शुद्ध रक्त वाले) अपने आपको उच्च समझते है और धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बने भारतीय दूसरे दर्जे के माने जाते हैं। अपनी पुस्तक पाकिस्तान और भारत के विभाजन, अम्बेडकर वांग्मय खंड 15 में उन्होंने स्पष्ट लिखा है-

१. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।

२. ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान इसलिए जो दलित मुस्लिम बन गए वे दूसरे दर्जे के ‘अज़लफ’ मुस्लिम कहलाये। उच्च जाति वाले  ‘अशरफ’ मुस्लिम नीच जाति वाले  ‘अज़लफ’ मुसलमानों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखते। ऊपर से शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी के झगड़ों का मतभेद। सत्य यह है कि इस्लाम में समानता और सदभाव की बात करने और जमीनी सच्चाई एक दूसरे के विपरीत थी। इसे हम हिंदी की प्रसिद्द कहावत चौबे जी गए थे छबे जी बनने दुबे जी बन कर रह गए से भली भांति समझ सकते है।

3. दलित समाज में मुसलमानों के विरुद्ध प्रतिक्रिया

दलितों ने देखा कि इस्लाम के प्रचार के नाम पर मुस्लिम मौलवी दलित बस्तियों में प्रचार के बहाने आते और दलित हिन्दू युवक-युवतियों को बहकाने का कार्य करते। दलित युवकों को बहकाकर उन्हें गोमांस खिला कर अपभ्रष्ट कर देते थे और दलित लड़कियों को भगाकर उन्हें किसी की तीसरी या चौथी बीवी बना डालते थे। दलित समाज के होशियार चौधरियों ने इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए एक व्यावहारिक युक्ति निकाली। उन्होंने प्रतिक्रिया रूप से दलितों ने सूअरों को पालना शुरू कर दिया था। एक सुअरी के अनेक बच्चे एक बार में जन्मते। थोड़े समय में पूरी दलित बस्ती में सूअर ही सूअर दिखने लगे। सूअरों से मुस्लिम मौलवियों को विशेष चिढ़ थी। सूअर देखकर मुस्लिम मौलवी दलितों की बस्तियों में इस्लाम के प्रचार करने से हिचकते थे। यह एक प्रकार का सामाजिक बहिष्कार रूपी प्रतिरोध था। पाठक समझ सकते है कैसे सूअरों के माध्यम से दलितों ने अपनी धर्मरक्षा की थी। उनके इस कदम से उनकी बस्तियां मलिन और बीमारियों का घर बन गई। मगर उन्हें मौलवियों से छुटकारा मिल गया।

4. दलित हिंदुओं का सवर्ण हिंदुओं के साथ मिलकर संघर्ष
 
जैसे सवर्ण हिन्दू समाज मुसलमानों के अत्याचारों से आतंकित था वैसे ही हिन्दू दलित भी उनके अत्याचारों से पूरी तरह आतंकित था। यही कारण था जब जब हिंदुओं ने किसी मुस्लिम हमलावर के विरोध में सेना को एकत्र किया। तब तब सवर्ण एवं दलित दोनों हिंदुओं ने बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर उनका प्रतिवाद किया। मैं यहाँ पर एक प्रेरणादायक घटना को उदहारण देना चाहता हूँ। तैमूर लंग ने जब भारत देश पर हमला किया तो उसने क्रूरता और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी। तैमूर लंग के अत्याचारों से पीड़ित हिन्दू जनता ने संगठित होकर उसका सामना करने का निश्चय किया। खाप नेता धर्मपालदेव के नेतृत्व में पंचायती सेना को एकत्र किया गया। इस सेना के दो उपप्रधान सेनापति थे। इस सेना के सेनापति जोगराजसिंह नियुक्त हुए थे जबकि उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी  था। जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि - “मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है। मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकालकर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये। उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकालकर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।

दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था । यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीर सिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगति को प्राप्त हो गये।
(सन्दर्भ-जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठ 380-383)

हमारे महान इतिहास की इस लुप्त प्रायः घटना को यहाँ देने के दो प्रयोजन है।  पहला तो यह सिद्ध करना कि हिन्दू समाज को अगर अपनी रक्षा करनी है तो उसे जातिवाद के भेद को भूलकर संगठित होकर विधर्मियों का सामना करना होगा। दूसरा इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस काल में जातिवाद का प्रचलन नहीं था। धूला भंगी (बालमीकी) अपनी योग्यता, अपने क्षत्रिय गुण,कर्म और स्वभाव के कारण सवर्ण और दलित सभी की मिश्रित धर्मसेना का नेतृत्व किया। https://www.facebook.com/288736371149169/posts/4025107447512024/

जातिवाद रूपी विषबेल हमारे देश में पिछली कुछ शताब्दियों में ही पोषित हुई।  वर्तमान में भारतीय राजनीति ने इसे अधिक से अधिक गहरा करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।

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Saturday, December 26, 2020

1 जनवरी का इतिहास जान लेंगे आप तो छोड़ देंगे नववर्ष मनाना

26 दिसंबर 2020


विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में राज करने के लिए सबसे पहले भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात किया जिससे हम अपनी महान दिव्य संस्कृति भूल जाएं और उनकी पाश्चात्य संस्कृति अपना लें जिसके कारण वे भारत में राज कर सकें।




अपनी संस्कृति का ज्ञान न होने के कारण आज हिन्दू भी 31 दिसंबर की रात्रि में एक-दूसरे को हैपी न्यू इयर कहते हुए नववर्ष की शुभकामनाएं देते हैं ।

नववर्ष उत्सव 4000 वर्ष पहले से बेबीलोन में मनाया जाता था। लेकिन उस समय नए वर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि (हिन्दुओं का नववर्ष ) भी मानी जाती थी। प्राचीन रोम में भी ये तिथि नव वर्षोत्सव के लिए चुनी गई थी लेकिन रोम के तानाशाह जूलियस सीजर को भारतीय नववर्ष मनाना पसन्द नहीं आ रहा था इसलिए उसने ईसा पूर्व 45वें वर्ष में जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला वर्ष यानि, ईसापूर्व 46 ईस्वी को 445 दिनों का करना पड़ा था । उसके बाद भारतीय नववर्ष के अनुसार छोड़कर ईसाई समुदाय उनके देशों में 1 जनवरी से नववर्ष मनाने लगे ।

भारत देश में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की 1757 में  स्थापना की । उसके बाद भारत को 190 साल तक गुलाम बनाकर रखा गया। इसमें वो लोग लगे हुए थे जो भारत की ऋषि-मुनियों की प्राचीन सनातन संस्कृति को मिटाने में कार्यरत थे। लॉड मैकाले ने सबसे पहले भारत का इतिहास बदलने का प्रयास किया जिसमें गुरुकुलों में हमारी वैदिक शिक्षण पद्धति को बदला गया ।

भारत का प्राचीन इतिहास बदला गया जिसमें भारतीय अपने मूल इतिहास को भूल गये और अंग्रेजों का गुलाम बनाने वाले इतिहास याद रह गया और आज कई भोले-भाले भारतवासी सृष्टि की रचना तिथि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष नहीं मनाकर 1 जनवरी को ही नववर्ष मनाने लगे ।

हद तो तब हो जाती है जब एक दूसरे को नववर्ष की बधाई भी देने लग जाते हैं। क्या किसी भी ईसाई देशों में हिन्दुओं को हिन्दू नववर्ष की बधाई दी जाती है..??? किसी भी ईसाई देश में हिन्दू नववर्ष नहीं मनाया जाता है फिर भोले भारतवासी उनका नववर्ष क्यों मनाते हैं?

इस साल आने वाला नया वर्ष 2021 अंग्रेजों अर्थात ईसाई धर्म का नया साल है।

हिन्दू धर्म का इस समय विक्रम संवत 2077 चल रहा है।

इससे सिद्ध हो गया कि हिन्दू धर्म ही सबसे पुराना धर्म है ।

इस विक्रम संवत से 5000 साल पहले इस धरती पर भगवान विष्णु श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित हुए । उनसे पहले भगवान राम, और अन्य अवतार हुए यानि जब से पृथ्वी का प्रारम्भ हुआ तब से सनातन (हिन्दू) धर्म है।

कहाँ करोड़ों वर्ष पुराना हमारा सनातन धर्म और कहाँ भारतीय अपनी गरिमा से गिर 2020 साल पुराना नववर्ष मना रहे हैं!

जरा सोचिए....!!!

सीधे-सीधे शब्दों में हिन्दू धर्म ही सब धर्मों की जननी है। यहाँ किसी धर्म का विरोध नहीं है परन्तु सभी भारतवासियों को बताना चाहते हैं कि इंग्लिश कैलेंडर के बदलने से हिन्दू वर्ष नहीं बदलता!


जब बच्चा पैदा होता है तो पंडित जी द्वारा उसका नामकरण कैलेंडर से नहीं हिन्दू पंचांग से किया जाता है । ग्रहदोष भी हिन्दू पंचाग से देखे जाते हैं और विवाह, जन्मकुंडली आदि का मिलान भी हिन्दू पंचाग से ही होता है । सभी व्रत, त्यौहार हिन्दू पंचाग से आते हैं। मरने के बाद तेरहवाँ भी हिन्दू पंचाग से ही देखा जाता है। मकान का उद्घाटन, जन्मपत्री, स्वास्थ्य रोग और अन्य सभी समस्याओं का निराकरण भी हिन्दू कैलेंडर {पंचाग} से ही होता है।

आप जानते हैं कि रामनवमी, जन्माष्टमी, होली, दीपावली, राखी, भाई दूज, करवा चौथ, एकादशी, शिवरात्री, नवरात्रि, दुर्गापूजा सभी विक्रमी संवत कैलेंडर से ही निर्धारित होते हैं । इंग्लिश कैलेंडर में इनका कोई स्थान नहीं होता।

सोचिये! आपके इस सनातन धर्म के जीवन में इंग्लिश नववर्ष या कैलेंडर का स्थान है कहाँ ?

1 जनवरी को क्या नया हो रहा है..????

न ऋतु बदली... न मौसम...न कक्षा बदली...न सत्र....न फसल बदली...न खेती.....न पेड़ पौधों की रंगत...न सूर्य चाँद सितारों की दिशा.... ना ही नक्षत्र...

हाँ, नए साल के नाम पर करोड़ो /अरबों जीवों की हत्या व करोड़ों /अरबों गैलन शराब का पान व रात पर फूहडता अवश्य होगी।

भारतीय संस्कृति का नव संवत्  ही नया साल है.... जब ब्रह्माण्ड से लेकर सूर्य चाँद की  दिशा, मौसम, फसल, कक्षा, नक्षत्र, पौधों की नई पत्तियां, किसान की नई फसल, विद्यार्थी की नई कक्षा, मनुष्य में नया रक्त संचरण आदि परिवर्तन होते हैं जो विज्ञान आधारित है और चैत्र नवरात्रि का पहला दिन होने के कारण घर, मन्दिर, गली, दुकान सभी जगह पूजा-पाठ व भक्ति का पवित्र वातावरण होता है ।

अतः हिन्दुस्तानी अपनी मानसिकता को बदले, विज्ञान आधारित भारतीय काल गणना को पहचाने और चैत्री शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन ही नूतन वर्ष मनाये।

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Friday, December 25, 2020

25 दिसंबर को भारतवासी खुश भी दिखे और नाराज भी दिखे...

25 दिसंबर 2020


अंग्रेजों ने भारत में आकर बड़ी चालाकी से हिन्दू धर्म को मिटाने के लिए हिन्दू संस्कृति को हटाकर अपनी पश्चिमी संस्कृति थोपनी चाही, गत वर्षों तक इसका प्रभाव जनमानस पर देखने को मिला, लेकिन आज देश की जनता जागरूक होने लगी है, धीरे-धीरे जनता पश्चिमी संस्कृति को भूल रही है और भारत की दिव्य संस्कृति की तरफ लौट रही है ।




 यूरोप आदि देशों में पहले 25 दिसंबर को सूर्यपूजा होती थी लेकिन सूर्यपूजा को खत्म करने के लिए और ईसाईयत का बढ़ावा देने के लिए क्रिसमस- डे शुरू किया लेकिन भारत में क्रिसमस की जगह देश-विदेश में विद्यालयों में, गांवों में, शहरों में, मन्दिरों आदि जगह-जगह पर तुलसी पूजन दिवस मनाया गया ।

आपको बता दें कि केवल भारत में ही नहीं दुबई, अमेरिका आदि में भी तुलसी पूजन दिवस मनाया गया, सिर्फ हिन्दू ही नहीं बल्कि मुस्लिम, ईसाई, फारसी लोगों ने भी 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस मनाया । 

बाता दें कि भारत की जनता ने सोशल मीडिया पर नाराजगी भी जाहिर किया । उनका कहना था कि नेता, एक्टर आदि ने हमारी भारतीय संस्कृति के त्यौहार तुलसी पूजन दिवस और गीता जयंती की बधाई नहीं दी जबकि पाश्चात्य संस्कृति का त्यौहार क्रिसमस पर बधाई दी, जनता लिख रही थी कि यही लोग भारतीय संस्कृति को खत्म करते जा रहे हैं।

बता दें कि तुलसी पूजन केवल जमीनी स्तर पर ही नहीं बल्कि ट्वीटर, फेसबुक, यूट्यूब आदि सोशल साइट्स पर भी तुलसी पूजन दिवस की धूम मची है ।

गौरतलब है कि 2014 से 25 दिसंबर को तुलसी पूजन हिंदू संत आसाराम बापू ने शुरू करवाया था और उनके करोड़ो अनुयायियों द्वारा जगह-जगह पर मनाना प्रारंभ किया गया । उसके बाद तो 2015 से इस अभियान ने विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया और अब 2018 में तो देश-विदेश में अनेक जगहों पर हिन्दू मुस्लिम और अन्य धर्मों की जनता भी उत्साहित होकर इस दिन को एक त्यौहार के रूप में मना रही है ।

संत आसारामजी आश्रम द्वारा बताया गया कि उनके करोड़ों अनुयायियों द्वारा विश्वभर में विद्यालयों और जाहिर जगहों पर एवं घर-घर तुलसी पूजन त्यौहार मनाया जा रहा है ।

नीचे दी गई लिंक पर आप देख सकते हैं कि किस प्रकार देश-विदेश के अनगिनत लोग तुलसी पूजन द्वारा लाभान्वित हो रहे हैं ।

ट्वीटर, फेसबुक आदि सोशल साइट्स पर तुलसी पूजन दिवस निमित्त देशभर के स्कूल, कॉलेज, गांवों, शहरों में हुए तुलसी पूजन तथा यात्राओं के साथ हुए तुलसी वितरण के फोटोज़ अपलोड हुए हैं ।

मंगलवार को ट्वीटर पर ट्रेंड करता हैशटैग- #तुलसी_पूजन_दिवस दिखाई दिया।

आम जनता के साथ राष्ट्रवादी नेताओं, पत्रकार आदि ने भी ट्वीट करके इस दिन तुलसी पूजन करने का समर्थन किया है ।

 आपको बता दें कि बापू आसारामजी के अनुयायियों के साथ-साथ अनेक हिन्दू संगठन और देश-विदेश के लोग भी मना रहे थे तुलसी पूजन का त्यौहार!!

आपको बता दें कि डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, स्वर्गीय श्री अशोक सिंघल जी और सुदर्शन न्यूज के सुरेश चव्हाणके और भी कई बड़ी हस्तियां आसारामजी बापू को जेल में मिलकर आये थे और उन्होंने बताया कि बापूजी ने देशहित के अतुलनीय कार्य किये हैं और ईसाई धर्मांतरण पर रोक लगाई है, इसलिए उनको षड़यंत्र के तहत फंसाया गया है।

आज तक देखने में आया है कि बापू आसारामजी के अनुयायियों ने अपने गुरुदेव से प्रेरणा पाकर हमेशा विदेशी अंधानुकरण का विरोध किया है और हिन्दू संस्कृति का समर्थन किया है ।

आज भले बापू आसारामजी अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत जेल में हों लेकिन आज भी उनके द्वारा प्रेरित किये गए सेवाकार्यों की सुवास समाज में देखने को मिलती है। जैसे 14 फरवरी को #मातृ_पितृ_पूजन_दिवस, गौ-पूजन, दीपावली पर गरीबों में भंडारा, गीता जयंती निमित्त रैलियां, यात्रायें आदि आदि ।

पर मीडिया का कैमरा कभी उस सच्चाई तक नहीं गया, कभी उन सेवाकार्यों तक नहीं गया जिससे मानवमात्र लाभान्वित हो रहा है ।  अगर आप गौर करेंगे तो मीडिया ने जब भी बापू आशाराम जी के लिए कुछ बोला तो हमेशा समाज में उनकी छवि धूमिल करने का ही प्रयास किया। उनकी क्या हर हिन्दू संत, हर हिन्दू कार्यकर्ता की छवि को धूमिल करने का प्रयास मीडिया द्वारा होता ही आया है ।

मीडिया के इस दोगलेपन के पीछे का राज है कि  मीडिया विदेशी फंड से चलती है । इसलिए ये समाज को वही दिखाती है जो इसे दिखाने के लिए कहा जाता है । इन्हें सत्य से कुछ लेना-देना नहीं, हर न्यूज के दाम फिक्स होते हैं । ऐसी मीडिया पर आप कब तक भरोसा करेंगे ???

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Thursday, December 24, 2020

रहस्य : 25 दिसम्बर को क्रिसमस की जगह क्यों मनायें 'तुलसी पूजन दिवस'?

24 दिसंबर 2020


 तुलसी सम्पूर्ण धरा के लिए वरदान है, अत्यंत उपयोगी औषधि है, मात्र इतना ही नहीं, यह तो मानव जीवन के लिए अमृत है ! यह केवल शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, अपितु धार्मिक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय एवं वैज्ञानिक आदि विभिन्न दृष्टियों से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।




 तुलसी पूजन दिवस 25 दिसम्बर को क्यों मनायें ?

इन दिनों में बीते वर्ष की विदाई पर पाश्चात्य अंधानुकरण से नशाखोरी, आत्महत्या आदि की वृद्धि होती जा रही है। तुलसी उत्तम अवसादरोधक एवं उत्साह, स्फूर्ति, सात्त्विकता वर्धक होने से इन दिनों में यह पर्व मनाना वरदानतुल्य साबित होगा।

 कवि ने क्या बताया?

 प्लास्टिक के पेड़ के नीचे मोमबत्ती जलाना, ये कैसी आधुनिकता है।
सांता क्लॉज आएंगे उपहार देने, ये कैसी मानसिकता है।।

 25 दिसम्बर को यीशु मसीह जन्में, ये भी कहीं नहीं लिखा।
बाईबल के पन्ने भी पलटे, पर उसमें भी नहीं दिखा।।

 फिर क्यों व्यर्थ में क्रिसमस के प्रचलन को बढ़ावा दिया गया।
यीशु, सांता क्लॉज का नाम जोड़कर, क्यों दिखावा किया गया।।

 प्लास्टिक से बना पेड़, भयंकर बीमारियों को आमंत्रण है।
मोमबत्ती जलने से निकली कार्बन डाइऑक्साइड, फैलाती प्रदूषण है।

 क्रिसमस मनाने से आजतक बस, युवावर्ग का ह्रास हुआ।
नशे की तरफ आकर्षित हुए, नैतिकता का सर्वनाश हुआ।।

 इसे देख आशारामजी बापू ने ठाना, समाज को बचाना है।
युवावर्ग है देश की नींव, उनको सही मार्ग दिखाना है।।

 25 दिसम्बर को करें तुलसी पूजन, यह सुंदर शुरुआत की।
स्वच्छ हो पर्यावरण, संस्कारी हो समाज, सबके भले की बात की।।

 तुलसी माता है हरि की प्रिय, तुलसी असाध्य रोग हर लेती है।
वातावरण से प्रदूषक है सोखती, 24 घण्टे ऑक्सिजन देती है।।

 जाग मानव! आडम्बर और दिखावे वाली आधुनिकता में मत फंस।
आशाराम बापूजी की सत्प्रेरणा से, 25 दिसम्बर को मनाओ तुलसी पूजन दिवस।। - कवि सुरेन्द्र भाई

क्रिसमिस के दिन शराब आदि नशीले पदार्थ का जमकर सेवन करते है, अश्लीलता भरे गाने गाये जाते हैं, पार्टी करते हैं, महिलाओं से छेड़छाड़ करते हैं जिसके कारण वातावरण अशुद्ध होता है, स्वास्थ्य खराब होता है, पैसे और समय की बर्बादी होती है और आत्महत्याएं बढ़ती है इन सबको रोकने के लिए क्रिसमिस की जगह तुलसी पूजन दिसव मनाना अत्यंत आवश्यक है।

★ फ्रेच डॉक्टर विक्टर रेसीन ने कहा है- "तुलसी एक अदभुत औषधि (Wonder Drug) है।

★ इजरायल में धार्मिक, सामाजिक, वैवाहिक और अन्य मांगलिक अवसरों पर तुलसी द्वारा पूजन कार्य सम्पन्न होते रहे हैं, यहाँ तक कि अंत्येष्टि क्रिया में भी।

 विदेशों में भी होती है तुलसी पूजा

मात्र भारत में ही नहीं वरन् विश्व के कई अन्य देशों में भी तुलसी को पूजनीय व शुभ माना गया है। ग्रीस में इस्टर्न चर्च नामक सम्प्रदाय में तुलसी की पूजा होती थी और सेंट बेजिल जयंती के दिन नूतन वर्ष भाग्यशाली हो इस भावना से चढ़ायी गयी तुलसी के प्रसाद को स्त्रियाँ अपने घर ले जाती थीं।

 पद्म पुराण के अनुसार

या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी।
रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी।।
प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता।
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः।।

जो दर्शन करने पर सारे पाप-समुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों में चढ़ाने पर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है। (पद्म पुराणः उ.खं. 56.22)

 तुलसी माता की अनंत महिमा जानकर आप भी अपने घर आंगन में तुलसी के पौधे जरूर लगाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें और हाँ एक बात ध्यान रखें 25 दिसंबर को क्रिसमस नहीं तुलसी पूजन दिवस मनाएं।

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Wednesday, December 23, 2020

विश्व में सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता को क्यों माना जाता है?

23 दिसंबर 2020


गीता में ऐसा उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि उसकी रचना हुए हजारों वर्ष बीत गए हैं किन्तु उसके बाद, उसके समान किसी भी ग्रंथ की रचना नहीं हुई है । 18 अध्याय एवं 700 श्लोकों में रचित तथा भक्ति, ज्ञान, योग एवं निष्कामता आदि से भरपूर यह गीता ग्रन्थ विश्व में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसकी जयंती मनायी जाती है ।




श्रीमद्भगवद्गीता ने किसी मत, पंथ की सराहना या निंदा नहीं की अपितु मनुष्यमात्र की उन्नति की बात कही है ।  गीता जीवन का दृष्टिकोण उन्नत बनाने की कला सिखाती है और युद्ध जैसे घोर कर्मों में भी निर्लेप रहने की कला सिखाती है । मरने के बाद नहीं, जीते-जी मुक्ति का स्वाद दिलाती है गीता ! इस साल श्रीमद्भगवद्गीता जयंती 25 दिसंबर को है ।

‘गीता’ में 18 अध्याय हैं, 700 श्लोक हैं, 94569 शब्द हैं । विश्व की 578 से भी अधिक भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है ।

'यह मेरा हृदय है’- ऐसा अगर किसी ग्रंथ के लिए भगवान ने कहा है तो वह गीता जी है । गीता मे हृदयं पार्थ । ‘गीता मेरा हृदय है ।’

गीता ने गजब कर दिया - धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे... युद्ध के मैदान को भी धर्मक्षेत्र बना दिया । युद्ध के मैदान में गीता ने योग प्रकटाया । हाथी चिंघाड़ रहे हैं, घोड़े हिनहिना रहे हैं, दोनों सेनाओं के योद्धा प्रतिशोध की आग में तप रहे हैं । किंकर्तव्यविमूढ़ता से उदास बैठे हुए अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं ।

आजादी के समय स्वतंत्रता सेनानियों को जब फाँसी की सजा दी जाती थी, तब ‘गीता’ के श्लोक बोलते हुए वे हँसते-हँसते फाँसी पर लटक जाते थे ।

श्री वेदव्यास ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरान्त कहा हैः
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सुता ।।

'गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्री गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं श्री पद्मनाभ विष्णु भगवान के मुखारविन्द से निकली हुई है, फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ?'

गीता सर्वशास्त्रमयी है । गीता में सारे शास्त्रों का सार भार हुआ है । इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिश्योक्ति न होगी । गीता का भलीभाँति ज्ञान हो जाने पर सब शास्त्रों का तात्त्विक ज्ञान अपने आप हो सकता है । उसके लिए अलग से परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

वराहपुराण में गीता की महिमा का बयान करते-करते भगवान ने स्वयं कहा हैः
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्यत्रींल्लोकान्पालयाम्यहम्।।

'मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ। गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।'

श्रीमद् भगवदगीता केवल किसी विशेष धर्म या जाति या व्यक्ति के लिए ही नहीं, वरन् मानवमात्र के लिए उपयोगी व हितकारी है । चाहे किसी भी देश, वेश, समुदाय, संप्रदाय, जाति, वर्ण व आश्रम का व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह इसका थोड़ा-सा भी नियमित पठन-पाठन करें तो उसे अनेक अनेक आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगते हैं ।

श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञानामृत के पान से मनुष्य के जीवन में साहस, सरलता, स्नेह, शांति और धर्म आदि दैवी गुण सहज में ही विकसित हो उठते हैं । अधर्म, अन्याय एवं शोषण  मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है । भोग एवं मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाला, निर्भयता आदि दैवी गुणों को विकसित करनेवाला यह गीता ग्रन्थ पूरे विश्व में अद्वितीय है ।

सशरीर स्वर्ग में जाकर शस्त्र ले आने की क्षमता वाले अर्जुन को भी गीता के अमृत के बिना किंकर्त्तव्यविमूढ़ता ने घेर रखा था। गीता माता ने अर्जुन को सशक्त बना दिया। गीता माता अहिंसक पर वार नहीं कराती और हिंसक व्यक्तियों के आगे हमें डरपोक नहीं होने देती।

देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्ण्ये तु भारते।
न श्रृणोति पठत्येव ताममृतस्वरूपिणीम्।।
हस्तात्त्याक्तवाऽमृतं प्राप्तं कष्टात्क्ष्वेडं समश्नुते।
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत्।।

भरतखण्ड में चार वर्णों में मनुष्य देह प्राप्त करके भी जो अमृतस्वरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हुआ अमृत छोड़कर कष्ट से विष खाता है। किन्तु जो मनुष्य गीता सुनता है, पढ़ता है तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष प्राप्त कर सुखी होता है।

विदेशों में श्री गीताजी का महत्व समझकर स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने लगे हैं, भारत सरकार भी अगर बच्चों एवं देश का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है तो सभी स्कूलों कॉलेज में गीता अनिवार्य कर देना चाहिए ।

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Tuesday, December 22, 2020

क्रिसमस का सच क्या है एकबार जान लीजिये...

22 दिसंबर 2020


 यूरोप, अमेरिका आदि ईसाई देशों में इस समय क्रिसमस डे की धूम है, लेकिन अधिकांश लोगों को तो ये पता ही नहीं है कि यह क्यों मनाया जाता है !




 भारत में भी कुछ भोले-भाले हिन्दू आदि लोग क्रिसमस की बधाई देते हैं और उनके साथ क्रिसमस मनाते हैं पर उनको भी नहीं पता है कि क्रिसमस क्यों मनाई जाती है ?

 कुछ लोगों का भ्रम है कि इस दिन यीशु मसीह का जन्मदिन होता है। पर सच्चाई यह है कि 25 दिसम्बर का ईसा मसीह के जन्मदिन से कोई सम्बन्ध ही नहीं है । एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म 7 ई.पू. से 2 ई.पू. के बीच 4 ई.पू. में हुआ था । जीसस के जन्म का वार, तिथि, मास, वर्ष, समय तथा स्थान, सभी बातें अज्ञात है। इसका बाईबल में भी कोई उल्लेख नहीं है। यदि वह इतने प्रसिद्द संत, महात्मा या अवतारी व्यक्ति होते तो सारा ब्यौरा तत्कालीन जनता जानने का यत्न करती ।

 विलियम ड्यूरेंट ने यीशु मसीह का जन्म वर्ष ईसापूर्व चौथा वर्ष लिखा है । यह कितनी असंगत बात है? भला ईसा का ही जन्म ईसा पूर्व में कैसे हो सकता है? कालगणना अगर यीशु मसीह के जन्म से शुरू होती है, जन्म से पूर्व ई.पू. और बाद में ई. में की जाती है तो यीशु मसीह का जन्म 4 ई.पू. में कैसे हुआ?

 और एक असंगति देखें । ईसा का जन्म 25 दिसम्बर को मनाया जाता है और नववर्ष का दिन होता है एक जनवरी । तो क्या ईसा का जन्म ईसवीं सन से एक सप्ताह पहले हुआ ? और यदि हुआ तो उसी दिन से वर्ष गणना शुरू क्यों नहीं की गई ?

 हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट छपी थी उसके अनुसार यीशु का जन्म कब हुआ, इसे लेकर एक राय नहीं है। कुछ धर्मशास्त्री मानते हैं कि उनका जन्म वसंत में हुआ था, क्योंकि इस बात का जिक्र है कि जब ईसा का जन्म हुआ था, उस समय गड़रिये मैदानों में अपने झुंडों की देखरेख कर रहे थे। अगर उस समय दिसंबर की सर्दियां होतीं, तो वे कहीं शरण लेकर बैठे होते। और अगर गड़रिये मैथुनकाल के दौरान भेड़ों की देखभाल कर रहे होते तो वे उन भेड़ों को झुंड से अलग करने में मशगूल होते, जो समागम कर चुकी होतीं। ऐसा होता तो ये पतझड़ का समय होता। मगर बाईबल में यीशु मसीह के जन्म का कोई दिन नहीं बताया गया है।

 वास्तव में पूर्व में 25 दिसम्बर को ‘मकर संक्रांति' (शीतकालीन संक्रांति) पर्व मनाया जाता था और यूरोप-अमेरिका आदि देश धूमधाम से इस दिन सूर्य उपासना करते थे । सूर्य और पृथ्वी की गति के कारण मकर संक्रांति लगभग 80 वर्षों में एक दिन आगे खिसक जाती है।

 सायनगणना के अनुसार 22 दिसंबर को सूर्य उत्तरायण की ओर व 22 जून को दक्षिणायन की ओर गति करता है । सायनगणना ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है । जिसके अनुसार 22 दिसंबर को सूर्य क्षितिज वृत्त में अपने दक्षिण जाने की सीमा समाप्त करके उत्तर की ओर बढ़ना आरंभ करता है । यूरोप शीतोष्ण कटिबंध में आता है इसलिए यहां सर्दी बहुत पड़ती है। जब सूर्य उत्तर की ओर चलता है, यूरोप उत्तरी गोलार्द्ध में पड़ता है तो यहां से सर्दी कम होने की शुरुआत होती है, इसलिए 25 दिसंबर को मकर संक्रांति मनाते थे।

 विश्व-कोष में दी गई जानकारी के अनुसार सूर्य-पूजा को समाप्त करने के उद्देश्य से क्रिसमस डे का प्रारम्भ किया गया ।

 आपको बता दें कि सबसे पहले 25 दिसंबर के दिन क्रिसमस का त्यौहार ईसाई रोमन सम्राट  (First Christian Roman Emperor) के समय में  336 ईसवी में मनाया गया था। इसके कुछ साल बाद पोप जुलियस (Pop Julius) ने 25 दिसंबर को ईसा मसीह के जन्म दिवस के रूप में मनाने का ऐलान कर दिया, तब से दुनियाभर में 25 दिसंबर को क्रिसमस का त्यौहार मनाया जाता है।

 आपको बता दें बाईबल में भी जिक्र नहीं है कि यीशु मसीह 13 साल से 29 साल की उम्र के बीच कहाँ रहे? यीशु ने भारत के कश्मीर में ऋषि मुनियों से साधना सीखकर 17 साल तक योग किया था, बाद में वे रोम देश में गये तो वहाँ उनके स्वागत में पूरा रोम शहर सजाया गया और मेग्डलेन नाम की प्रसिद्ध वेश्या ने उनके पैरों को इत्र से धोया और अपने रेशमी लंबे बालों से यीशु के पैर पोछे थे ।

 बाद में यीशु के अधिक लोक संपर्क से योगबल खत्म हो गया और उनको सूली पर चढ़ा दिया गया तब पूरा रोम शहर उनके खिलाफ था । रोम शहर में से केवल 6 व्यक्ति ही उनके सूली पर चढ़ने से दुःखी थे ।

 एक नए शोध के अनुसार यीशु ने उनकी शिष्या मेरी मेग्डलीन से विवाह किया था, जिनसे उनको दो बच्चे भी हुए थे। ब्रिटिश दैनिक 'द इंडिपेंडेंट में प्रकाशित रिपोर्ट में 'द संडे टाइम्स' के हवाले से बताया गया है कि ब्रिटिश लाइब्रेरी में 1500 साल पुराना एक दस्तावेज मिला है, जिसमें एक दावा किया गया है कि ईसा मसीह ने ना सिर्फ मेरी से शादी की थी बल्कि उनके दो बच्चे भी थे।

 साहित्यकार और वकील लुईस जेकोलियत (Louis Jacolliot) ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाइबिल इन इंडिया' (The Bible in India, or the Life of Jezeus Christna) में कृष्ण और क्राइस्ट पर एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। 'जीसस' शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राइस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है। इसका संस्कृत में अर्थ होता है 'मूल तत्व'।
 
 इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि 'क्राइस्ट' शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है, हालांकि उन्होंने कृष्ण की जगह 'क्रिसना' शब्द का इस्तेमाल किया। भारत में गांवों में कृष्ण को क्रिसना ही कहा जाता है। यह क्रिसना ही यूरोप में क्राइस्ट और ख्रिस्तान हो गया। बाद में यही क्रिश्चियन हो गया। लुईस के अनुसार ईसा मसीह अपने भारत भ्रमण के दौरान भगवान जगन्नाथ के मंदिर में रुके थे। एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्ध आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है। इसमें ईसा मसीह के भारत भ्रमण के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है।

 मॉनेस्ट्री के एक अनुभवी लामा ने एक न्यूज एजेंसी को बताया था कि ईसा मसीह ने भारत में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी और वह बुद्ध के विचार और नियमों से बहुत प्रभावित थे। यह भी कहा जाता है कि जीसस ने कई पवित्र शहरों जैसे जगन्नाथ, राजगृह और बनारस में दीक्षा दी और इसकी वजह से ब्राह्मण नाराज हो गए और उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया। इसके बाद जीसस हिमालय भाग गए और बौद्ध धर्म की दीक्षा लेना जारी रखा। जर्मन विद्वान होल्गर केर्सटन ने जीसस के शुरुआती जीवन के बारे में लिखा था और दावा किया था कि जीसस सिंध प्रांत में आर्यों के साथ जाकर बस गए थे।

 "फिफ्त गॉस्पल" फिदा हसनैन और देहन लैबी द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब 'अक्षरों की रासलीला' में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इन्कार कर सकता है। जैसे मसलन कुँवारी माँ से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे।

 बीबीसी ने “Jesus Was A Buddhist Monk” नाम से एक डॉक्युमेंट्री बनाई थी जिसमें बताया गया था कि यीशु मसीह को सूली पर नहीं चढ़ाया गया था। जब वह 30 वर्ष के थे तो वह अपनी पसंदीदा जगह वापस चले गए थे। डॉक्युमेंट्री के मुताबिक यीशु मसीह की मौत नहीं हुई थी और वह यहूदियों के साथ अफगानिस्तान चले गए थे। रिपोर्ट के मुताबिक स्थानीय लोगों ने इस बात की पुष्टि की कि यीशु मसीह ने कश्मीर घाटी में कई वर्ष व्यतीत किए थे और 80 की उम्र तक वहीं रहे। अगर यीशु मसीह ने 16 वर्ष किशोरावस्था में और जिंदगी के आखिरी 45 साल व्यतीत किए तो इस हिसाब से वह भारत, तिब्बत और आस-पास के इलाकों में करीब 61 साल रहे। कई स्थानीय लोगों का मानना है कि कश्मीर के श्रीनगर में रोजा बल श्राइन में जीसस की समाधि बनी हुई है। हालांकि, आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है। अगर इस बात को सत्य माना जाए तो इसका मतलब है कि यीशु मसीह को कील ठोककर क्रॉस पर लटकाना आदि बातें झूठ है। ईसाई मिशनरियों इसी बात को बोलकर यीशु मसीह को भगवान का बेटा बताती है। इसका मतलब ईसाई मिशनरियां केवल धर्मांतरण के लिए ये सफेद झूठ बोलती है।

यदि यीशु मसीह ने धार्मिक प्रवचन करते अपना जीवन बिताया होता तो उसके प्रवचनों की कोई बड़ी पुस्तक जरूर होती या कम से कम बाइबिल में ही उसके प्रवचन होते । पर बाईबल में तो उनके किसी प्रवचन का जिक्र ही नहीं है? अब प्रश्न ये है कि वे सारे भाषण कहाँ हैं? इसका उत्तर आज तक किसी के पास नहीं है।

 25 दिसंबर न यीशु का क्रिसमस से कोई लेना देना है और न ही संता क्‍लॉज से । फिर भी भारत में पढ़े लिखे लोग बिना कारण का पर्व मनाते हैं। ये सब भारतीय संस्कृति को खत्म करने और ईसाईकरण के लिए भारत में क्रिसमस डे मनाया जाता है, इसलिये आप सावधान रहें ।

 ध्यान रहे हिन्दुओं का नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से शुरु होता है । हिन्दू महान भारतीय संस्कृति के महान ऋषि -मुनियों की संतानें हैं इसलिये दारू पीने वाला, मांस खाने वाला अंग्रेजो का नववर्ष मनाये ये भारतीयों को शोभा नहीं देता है ।

 आपको बता दें कि वर्ष 2014 से देश में सुख, सौहार्द, स्वास्थ्य व् शांति से जन मानस का जीवन मंगलमय हो, इस लोकहितकारी उद्देश्य से हिदू संत आशाराम बापूजी ने 25 दिसम्बर "तुलसी पूजन दिवस" के रूप में मनाना शुरू करवाया, समस्त भारतवासी भी 25 दिसम्बर तुलसी पूजन करके ही मनाये ।

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Monday, December 21, 2020

क्यों हो रहे हैं साधु-सन्त बदनाम और व्यभिचारी को दुआ-सलाम ?

21 दिसंबर 2020


जब चौपाल में साधु संतों की चर्चा होती है तो मन में एक मैली छवि उभर आती है - दाढ़ी वाले बाबा, ढोंगी बाबा, पाखंडी बाबा, बलात्कारी, अंधविश्वासी आदि।




आखिर जिस देश की विरासत और सियासत, दोनों ही ऋषि-मुनियों की ऋणी है वहीं पर इनकी छवि इतनी घिनौनी कैसे हो गई? 200 साल तक हम अंग्रेजों की गुलामी में रहे और अन्ततः 1947 में हम आजाद हुए लेकिन देश और धर्म विरोधी ताकतों की गुलामी चालू रही।

स्वत्ंत्रता के ७० वर्षों में भी हमारी मूल संस्कृति पर विधर्मियों के कुठाराघात होते रहे। इससे हम गुलामी की मानसिकता से उबर नही पाए और हम अपने संस्कार, अपनी रीति-रिवाज़ो को ही अपनी गुलामी का कारण मानने लगे। ऊपर से विदेशी मीडिया द्वारा संस्कृति के सतत् पाश्चात्यानुकरण से हम अपने धर्म और संतों को ही हेय-दृष्टि से देखने लगे।

समाज की इस दशा में सबसे बड़ा योगदान किसका है? सच पूछे तो टीवी, पत्रकारिता और फिल्मों का है, जिसे हम प्रचलित भाषा में मीडिया कहते हैं। आज़ादी के बाद से फिल्म जगत का समाज पर प्रभाव दशक-दर-दशक बढ़ता ही रहा। शुद्ध मनोरंजन के नाम पर अनैतिक दृश्यांकन बढ़ते रहे। आपराधिक, अश्लील एवं मर्यादाहीन दृश्यों से युवा और बाल-समाज का बड़ा ह्रास हुआ है। जो 80-90 के दशक में पले-बढ़े युवक हैं उनको सिगरेट-शराब के व्यसन एक सभ्य-समाज की पहचान दिखते हैं। देर रात तक क्लबों में रहना, लम्बी गाड़ियाँ में घूमना और चिकने मकानों से ही वे अपनी प्रगति समझते हैं। ये सभी चिन्ह टीवी, विज्ञापनों और फिल्मों में हम दशकों से देखते आ रहें हैं।

वास्तविकता से अनभिज्ञ हिंदू समाज इसमें मनोरंजन देखता रहा लेकिन इसी मनोरंजन ने समाज को धर्म-संस्कृति और ऋषि मुनियों  के आदर्शों से दूर कर दिया। धर्म विरुद्ध प्रसंगों से मनोरंजन करने की जो आदत लगी है उससे समाज की बड़ी हानि हुई है।

सन 2000 से तो साधु-संतों को काल्पनिक प्रसंगों में इनके स्वभाव के विपरीत ही आचरण करते दर्शाया गया है। फिरौती लेना, व्यभिचार करना या अन्य अनैतिक कर्मों मे लिप्त रहना - ऐसे दृष्टांत दे दे कर साधु समाज की प्रतिष्ठा ही नष्ट कर दी। फिर भी हम मनोरंजन के नाम पर अपना समय-पैसा खर्च करके इसको स्वीकारते रहे, इन काल्पनिक प्रसंगों पर चुटकुले बना कर ताली पीटते रहे।

परिणाम यह हुआ कि अपनी संस्कृति के तिरस्कार पर मज़ा लेने वाला समाज आज उन्ही सामाजिक बुराईयों से त्रस्त है। नैतिक-पतन के चलते अब कोई भी किसी पर विश्वास नही करता। हर वह पद जो किसी समय पर समाज में आदर का पात्र था - वकील, पत्रकार या प्रशासनिक अधिकारी आज सबको भ्रष्ट ही समझा जाता है। इन सभी पदों की गरिमा नैतिकता से ही थी जो हमने महापुरुषों से पाई थी। जब नैतिकता के स्त्रोत संत-समाज को ही निंदित कर दिया तो समाज किससे सीख लेता। जब मर्यादित जीवन को पिछड़ा समझा जाने लगा तो फिर कौन मर्यादा पुरुषोत्तम से सीख लेता।

प्रिय पाठकों, आज पूरा बॉलीवुड हिंदू-विरोधी बन चुका है, ड्रग्स और आतंकवाद का गढ़ बन चुका है। हाल ही में एक नई फिल्म बनाने को लेकर अभिनेता सैफ ने कहा कि वे रावण के चरित्र का ऐसा पक्ष उजागर करेंगे जिससे जनता परिचित नही। आप नीचे दिये लिंक पर क्लिक कर देख सकते हैं।

अब एक धर्म-विरोधी यवन हमारे आराध्य श्रीराम की विवेचना करेगा? वह अपने प्रभाव से सिद्ध करेगा कि रावण – माता सीता का छलपूर्वक हरण करने वाला, साध्वी वेदवती को हठपूर्वक अपवित्र करने वाला, अपनी बहन के पति की हत्या करने वाला - एक शुद्ध चरित्र था? आज समाज में अपराध, व्यभिचार, प्रेम-प्रसंग आदि साधारण विषय हो गए हैं। युवाओं का अशुद्ध खान-पान व दुर्व्यसन के प्रति बेरोकटोक लगाव एवम् पाश्चात्य अंधानुकरण से वे पथभ्रष्ट हो गए हैं। अपने जीवन का मूल्य सिखाने वाले धर्म गुरुओं के प्रति ही शंका एवं घृणा रखने लगे हैं।

दूसरी ओर भारत को खंडित करने वाले मिशनरी व जिहादी मिलकर हिन्दू साधु-संतों व सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में लगी संस्थाओं पर झूठे आरोप लगाते हैं। षडयंत्रपूर्वक हत्याएं करवा कर, मीडिया में साधु-समाज को बदनाम करने पर तुले हुए हैं। ऐसे में राष्ट्र्वादी चिंतकों के लिए भारतवर्ष की सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत को बचाना भारी चुनौती बन गया है।

स्मरण रहे, यदि संतों का सम्मान करना नहीं सीखा तो देश और समाज को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि जहाँ वन्दनीयों का क्रंदन हो और निंदनियों का वंदन हो वहाँ रोग, भय और मृत्यु का तांडव होता ही है।

हमारे ऋषि-मुनि, साधु-संत, शास्त्र व दैवी परम्पराएँ हमारी विरासत है, इनका अस्तित्व हमारे व्यक्तित्व के लिए नितांत आवश्यक है। जब तक इनका आदर-पूजन है तभी तक भारत का अस्तित्व है, अखंडता है वरना हमारी क्या पहचान है? -कमल किशोर कुमावत, राजस्थान

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